Sunday, December 7, 2014

नज़्म - इकीसवीं सदी

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

दादा हैं आते थे जब, मिटटी का एक घर था
चोरों का कोई खटका न डाकुओं का डर था
खाते थे रूखी-सूखी, सोते थे नींद गहरी
शामें  भरी-भरी थीं, आबाद थी दुपहरी
संतोष था दिलों को माथे पे बल नहीं था
दिल में कपट नहीं था आँखों में  छल नहीं था
थे लोग भोले-भाले लेकिन थे प्यार वाले
दुनिया से कितनी जल्दी सब हो गए रवाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

अब्बा का वक़्त आया तालीम घर में आई                       (तालीम = शिक्षा)
तालीम साथ अपने  ताज़ा  विचार  लाई
आगे रवायतों से बढ़ने का  ध्यान  आया                         (रवायत =परम्परा)
मिटटी का घर हटा तो पक्का  मकान आया
दफ्तर की नौकरी थी, तनख्वाह का सहारा
मालिक पे था भरोसा हो जाता था गुज़ारा
पैसा अगरचे  कम था  फिर भी न कोई ग़म था
कैसा भरा-पूरा था अपना  गरीब-खाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

अब मेरा  दौर है ये कोई नहीं किसी का
हर आदमी अकेला हर चेहरा अजनबी-सा
आँसूं न मुस्कराहट जीवन का हाल ऐसा
अपनी ख़बर नहीं है माया का जाल ऐसा
पैसा है,  मर्तबा है, इज्ज़त, वक़ार भी है                     (वक़ार = विक़ार = शान-शौक़त, वैभव)
नौकर है और चाकर बंगला है  कार भी है
ज़र पास है, ज़मीं है, लेकिन सुकूं नहीं है                    (ज़र = धन, पैसा)
पाने के वास्ते कुछ क्या-क्या पड़ा गंवाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

ए आने वाली नस्लों, ए आने वाले लोगों
भोगा है हमने जो कुछ वो तुम कभी न भोगो
जो दुःख था साथ अपने तुम से करीब न हो
पीड़ा जो हम ने झेली तुमको नसीब न हो
जिस तरह भीड़ में हम तन्हा रहे अकेले
वो जिंदगी की महफ़िल तुमसे न कोई ले ले
तुम जिस तरफ़ से गुजरो मेला हो रौशनी का
रास आये तुमको मौसम इक्कीसवी सदी का
हम तो सुकूं को तरसे तुम पर सुकून बरसे
आनंद हो दिलों में जीवन लगे सुहाना

-ज़फर गोरखपुरी

पंकज उधास/ Pankaj Udhas  

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