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Thursday, August 29, 2019

मैं हूँ दिल है तन्हाई है
तुम भी होते अच्छा होता

-फ़िराक़ गोरखपुरी

Thursday, August 15, 2019

लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Thursday, May 23, 2019

मोमिनो लाख जन्नतें क़ुरबां
एक बच्चे की मुस्कुराहट पर
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Tuesday, May 21, 2019

भला है कौन, बुरा कौन, इस ज़माने में
बुरा, बुरा भी नहीं, भला, भला भी नहीं
-"फ़िराक़" गोरखपुरी

Wednesday, January 21, 2015

एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
-फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़रज़ कि काट दिये ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Thursday, January 1, 2015

तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
तुमको देखें कि तुमसे बात करें
-फ़िराक़ गोरखपुरी

(मुख़ातिब = वो जो किसी से कुछ कहता हो, वक्ता, सम्बोधनकर्ता, बोलने वाला)

Thursday, November 20, 2014

शब-ए-हिज्र थी यूँ तो मगर पिछली रात को
वो दर्द उठा 'फ़िराक़' कि मैं मुस्कुरा दिया
-फ़िराक़ गोरखपुरी

(शब-ए-हिज्र = जुदाई की रात)
फ़िज़ा तबस्सुम-ए-सुबह-ए-बहार थी लेकिन
पहुँच के मंज़िल-ए-जाँना पे आँख भर आई

-फ़िराक़ गोरखपुरी

(फ़िज़ा = वातावरण),  (तबस्सुम-ए-सुबह-ए-बहार = बहार की सुबह की मुस्कराहट), (मंज़िल-ए-जाँना = प्रियतम को पाना) 

Saturday, November 8, 2014

शाम भी थी धुआँ धुआँ, हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ, याद सी आके रह गईं
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Saturday, November 1, 2014

अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही 
यारों ने इतनी दूर बसा ली हैं बस्तियाँ 
-फ़िराक़ गोरखपुरी

याद-ए-रफ़्तगाँ = गुज़री हुई यादें

Wednesday, October 29, 2014

मेहरबानी को मुहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह ! मुझ से वो तेरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं

(रंजिश-ए-बेजा = अकारण क्रोध, बिना कारण का वैमनस्य)

-फ़िराक़ गोरखपुरी 

Thursday, October 16, 2014

गहराई की थाह न पाए दुनिया को हैरानी है
तू ही बता ऐ बहर-ए-मुहब्बत तुझमे कितना पानी है
-फ़िराक़ गोरखपुरी

[(थाह  = अंत, सीमा), (बहर-ए-मुहब्बत = प्रेम का सागर)]


Saturday, August 23, 2014

रात भी, नींद भी, कहानी भी
हाय, क्या चीज़ है जवानी भी

एक पैग़ाम-ए-ज़िन्दगानी भी
आशिक़ी मर्गे-नागहानी भी

[(पैग़ाम-ए-ज़िन्दगानी = जीवन का सन्देश), (मर्गे-नागहानी= अचानक आने वाली मौत)]

इस अदा का तेरी जवाब नहीं
मेहरबानी भी, सरगरानी भी

(सरगरानी = गुस्सा, रोष, अप्रसन्नता)

दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में
कुछ बलायें थी आसमानी भी

मंसबे-दिल खुशी लुटाना है
ग़मे-पिन्हाँ की पासबानी भी

[(मंसबे-दिल = दिल का काम/ कर्तव्य/ फ़र्ज़), (ग़मे-पिन्हाँ = छिपा हुआ दुःख), (पासबानी = निरीक्षण, निगरानी)]

दिल को शोलों से करती है सेराब
ज़िन्दगी आग भी है, पानी भी

(सेराब = भीगा हुआ, पानी से सींचा हुआ)

शादकामों को ये नहीं तौफ़ीक़
दिले-गमगीं की शादमानी भी

(शादकाम= प्रसन्नचित, कामयाब), (तौफ़ीक= काबिलियत, सामर्थ्य, शक्ति), (शादमानी = खुशी)]

लाख हुस्न-ए-यकीं से बढकर है
उन निगाहों की बदगुमानी भी

तंगना-ए-दिले-मलूल में है
बहर-ए-हस्ती की बेकरानी भी

(तंगना-ए-दिले-मलूल = दुखी ह्रदय की सीमा), (बहर-ए-हस्ती = ज़िन्दगी का समन्दर),  (बेकरानी = जिसका किनारा न हो, अपार, असीम)

इश्क़े-नाकाम की है परछाई
शादमानी भी, कामरानी भी

(शादमानी = खुशी), (कामरानी = कामयाबी, सफ़लता)

देख दिल के निगारखाने में
ज़ख्म-ए-पिन्हाँ की है निशानी भी

निगारखाना = (चित्रालय, सजा हुआ मकान, मूर्तिग्रह), (ज़ख्म-ए-पिन्हाँ = आंतरिक घाव)

ख़ल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूं मैं तेरी ज़ुबानी भी

(खल्क = दुनिया, सृष्टी, जगत)

आये तारीख़-ए-इश्क़ में सौ बार
मौत के दौरे- दरमियानी भी

(तारीख़-ए-इश्क़ = मोहब्बत का इतिहास)
दौर=वक्त, समय दरमियानी=बीच में

अपनी मासूमियों के परदे में
हो गई वो नज़र सयानी भी

दिन को सूरजमुखी है वो नौगुल
रात को है वो रातरानी भी

(नौगुल = नया फ़ूल)

दिले-बदनाम तेरे बारे में
लोग कहते हैं इक कहानी भी

वज़्अ करते कोई नयी दुनिया
कि ये दुनिया हुई पुरानी भी

(वज़्अ  करते  = बनाते)

दिल को आदाबे-बंदगी भी ना आये
कर गये लोग हुक्मरानी भी

[(आदाबे-बंदगी = सेवाभाव), (हुक्मरानी = शासन चलाना, हुकूमत करना)]

जौरे-कमकम का शुक्रिया बस है
आप की इतनी मेहरबानी भी

(जौर = कहर)

दिल में एक हूक सी उठे ऐ दोस्त
याद आई तेरी जवानी भी

सर से पा तक सुपुर्दगी की अदा
एक अन्दाजे-तुर्कमानी भी

[(पा = पांव), (सुपुर्दगी=समर्पण), (तुर्कमानी=विद्रोही)

पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी, मेज़बानी भी

जो ना अक्स-ए-जबीं-ए-नाज़ की है
दिल में इक नूर-ए-कहकशानी भी

(अक्स-ए-जबीं-ए-नाज़ = किसी प्यारे का चेहरा), (नूर = प्रकाश), (कहकशां = आकाश गंगा)

ज़िन्दगी ऐन दीद-ए-यार ’फ़िराक़’
ज़िन्दगी हिज्र की कहानी भी

[(ऐन=  ठीक, सटीक, असलियत में), (दीद = दर्शन), (हिज्र = बिछोहजुदाई)]

-फ़िराक़ गोरखपुरी


Friday, August 22, 2014

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।

मेरी नजरें भी ऐसे काफ़िरों की जान ओ ईमाँ हैं
निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं।

जिसे कहती दुनिया कामयाबी वाय नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं।

निगाहे-बादागूँ, यूँ तो तेरी बातों का क्या कहना
तेरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं।

तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों के चादर तान लेते हैं

खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं

हयाते-इश्क़ का इक-इक नफ़स जामे-शहादत है
वो जाने-नाज़बरदाराँ, कोई आसान लेते हैं।

हमआहंगी में भी इक चासनी है इख़्तलाफ़ों की
मेरी बातें ब‍उनवाने-दिगर वो मान लेते हैं।

तेरी मक़बूलियत की बज्‍हे-वाहिद तेरी रम्ज़ीयत
कि उसको मानते ही कब हैं जिसको जान लेते हैं।

अब इसको कुफ़्र माने या बलन्दी-ए-नज़र जानें
ख़ुदा-ए-दोजहाँ को देके हम इन्सान लेते हैं।

जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मानी जान लेते हैं

तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं

हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती है
तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं

रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है
तेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं

ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान लेते हैं

‘फ़िराक’ अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
-फ़िराक़ गोरखपुरी


Friday, July 5, 2013

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम

(निगाह-ए-आशना = परिचित दृष्टि)

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

(ग़फ़्लत = असावधानी, बेपरवाही)

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

(तौफ़ीक़ = सामर्थ्य, शक्ति)

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

(बेनियाज़ी = स्वछंदता)

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम

(निगाह-ए-नाज़ = चंचल दृष्टि, हाव-भाव भरी)

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Sunday, March 24, 2013

मेरा ग़म पुरसिशों की दस्तरस से दूर है हमदम,
मगर ख़ुश हूँ कि जो आता है, कुछ समझा ही जाता है।

[(पुरसिश = पूछताछ), (दस्तरस = पहुँच)]

उलट जाती हैं तदबीरें, पलट जाती हैं तक़दीरें,
अगर ढूँढे नई दुनिया तो इन्सां पा ही जाता है।

(तदबीर = उपाय, प्रयत्न, कोशिश), (तक़दीर = भाग्य, किस्मत)

-फ़िराक़ गोरखपुरी

Monday, March 18, 2013

मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे,
तहज़ीब सलीक़े की इन्सान क़रीने के ।
-फ़िराक़ गोरखपुरी

(क़रीने के = सुसभ्य, सलीके के)

Thursday, January 31, 2013

दुनिया में अब इस मर्ज़ के बीमार नहीं,
इस दौर में सतयुग के परस्तार नहीं।

(परस्तार = प्रशंसक)

इस रद्दी माल की निकासी है मुहाल,
बाज़ार में माज़ी के ख़रीदार नहीं।

(माज़ी = अतीत)

-फ़िराक़ गोरखपुरी

Friday, November 23, 2012

वो ज़िन्दगी के कड़े कोस याद आता है,
तिरी निगाहे-करम का घना-घना साया।
-फ़िराक़ गोरखपुरी