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Saturday, June 29, 2019

यूँ तो हम ज़माने में कब किसी से डरते हैं
आदमी के मारे हैं, आदमी से डरते हैं
-"ख़ुमार" बाराबंकवी

Sunday, December 1, 2013

अक्ल-ओ-दिल अपनी अपनी कहें जब 'ख़ुमार'
अक्ल की सुनिए, दिल का कहा कीजिये
-ख़ुमार बाराबंकवी
ग़म छुपाने से छुप जाए ऐसा नहीं
बेख़बर तूने आईना देखा नहीं

दो परिंदे उड़े आँख नम हो गई
आज समझा के मैं तुझको भूला नहीं
-ख़ुमार बाराबंकवी
सुना है वो हमें भुलाने लगे है
तो क्या हम उन्हे याद आने लगे है

हटाए थे जो राह से दोस्तों की
तो पत्थर मेरे घर में आने लगे है

ये कहना था उनसे मुहब्ब्त है मुझको
ये कहने में मुझको ज़माने लगे है

क़यामत यकीनन करीब आ गई है
"ख़ुमार" अब तो मस्ज़िद में जाने लगे है
-ख़ुमार बाराबंकवी

अब जाके आह करने के आदाब आए है
दुनिया समझ रही है कि हम मुस्कुराए है

गुज़रे है मयकदे से जो तौबा के बाद हम
कुछ दूर आदतन भी कदम लड़खड़ाए है

इंसान जीतेजी करे तौबा ख़ताओ से
मजबूरियो ने कितने फ़रिश्ते बनाए है
-ख़ुमार बाराबंकवी
तेरे दर से उठकर जिधर जाऊं मैं
चलूँ दो कदम और ठहर जाऊं मैं

अगर तू ख़फ़ा हो तो परवा नहीं
तेरा ग़म ख़फ़ा हो तो मर जाऊं मैं

तब्बसुम ने इतना डसा है मुझे
कली मुस्कुराए तो डर जाऊं मैं

सम्भाले तो हूँ खुदको, तुझ बिन मगर
जो छू ले कोई तो बिखर जाऊं मैं
-ख़ुमार बाराबंकवी
वो जो आए हयात याद आई
भूली बिसरी सी बात याद आई

कि हाल-ए-दिल उनसे कहके जब लौटे
उनसे कहने की बात याद आई
-ख़ुमार बाराबंकवी

(हयात = जीवन)
वो हमें जिस कदर आज़माते रहे
अपनी ही मुश्किलो को बढ़ाते रहे

प्यार से उनका इनकार बरहक़ मगर
उनके लब किसलिए थरथराते रहे

(बरहक़ = जो हक़ पर हो, ठीक, उचित)

याद करने पर भी दोस्त आए न याद
दोस्तो के करम याद आते रहे

बाद-ए-तौबा ये आलम रहा मुद्दतों
हाथ बेजाम भी लब तक आते रहे
-ख़ुमार बाराबंकवी
कभी शेर-ओ-नग़मा बनके कभी आँसूओ में ढल के
वो मुझे मिले तो लेकिन, मिले सूरतें बदल के

कि वफ़ा की सख़्त राहें, कि तुम्हारे पाँव नाज़ुक
न लो इंतकाम मुझसे मेरे साथ-साथ चल के

न तो होश से ताल्लुक न जूनूँ से आशनाई
ये कहाँ पहुँच गये हम तेरी बज़्म से निकल के
-ख़ुमार बाराबंकवी
कहूँ किस तरह मैं कि वो बेवफ़ा है
मुझे उसकी मजबूरियों का पता है

हवा को बहुत सरकशी का नशा है
मगर ये न भूले दिया भी दिया है

नज़र में है जलते मकानो मंज़र
चमकते है जुगनू तो दिल काँपता है

उन्हे भूलना या उन्हे याद करना
वो बिछड़े हैं जब से यही मशग़ला है

(मशग़ला = दिल-बहलाव)

गुज़रता है हर शक्स चेहरा छुपाए
कोई राह में आईना रख गया है
-खुमार बाराबंकवी
वादे का उनके आज ख़याल आ गया मुझे
शक और ऐतबार के दिन याद आ गये
-ख़ुमार बाराबंकवी

Thursday, June 13, 2013

इक आँसू कह गया सब हाल दिल का
मैं समझा था ये ज़ालिम बेज़बाँ है
-खुमार बाराबंकवी

ऐ मौत उन्हें भुलाए ज़माने गुज़र गए

ऐ मौत उन्हें भुलाए ज़माने गुज़र गए
आ जा कि ज़हर खाए ज़माने गुज़र गए

ओ जाने वाले आ कि तिरे इंतिज़ार में
रस्ते को घर बनाए ज़माने गुज़र गए

ग़म है न अब ख़ुशी है न उम्मीद है न यास
सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए

(यास = नाउम्मीदी, निराशा), (नजात = मुक्ति, छुटकारा)

क्या लाइक़-ए-सितम भी नहीं अब मैं दोस्तो
पत्थर भी घर में आए ज़माने गुज़र गए

(लाइक़-ए-सितम = अत्याचार या ज़ुल्म के योग्य)

जान-ए-बहार फूल नहीं आदमी हूँ मैं
आ जा कि मुस्कुराए ज़माने गुज़र गए

क्या क्या तवक़्क़ुआत थीं आहों से ऐ 'ख़ुमार'
ये तीर भी चलाए ज़माने गुज़र गए

(तवक़्क़ुआत = उम्मीदें, अपेक्षाएँ, आशाएं)

-ख़ुमार बाराबंकवी
एक पल में एक सदी का मज़ा हमसे पूछिए
दो दिन की ज़िन्दगी का मज़ा हमसे पूछिए

भूले हैं रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा हमसे पूछिए

(रफ़्ता-रफ़्ता = धीरे-धीरे)

आगाज़े-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए
अंजामे-आशिक़ी का मज़ा हमसे पूछिए

जलते दीयों में जलते घरों जैसी लौ कहाँ
सरकार रोशनी का मज़ा हमसे पूछिए

वो जान ही गए कि हमें उनसे प्यार है
आँखों की मुख़बिरी का मज़ा हमसे पूछिए

हँसने का शौक़ हमको भी था आप की तरह
हँसिए मगर हँसी का मज़ा हमसे पूछिए

हम तौबा करके मर गए क़ब्ले-अज़ल 'ख़ुमार'
तौहीन-ए-मयकशी का मज़ा हमसे पूछिये

(क़ब्ले-अज़ल = मौत से पहले)

-खुमार बाराबंकवी

Wednesday, May 15, 2013

डूबा हो जब अँधेरे में हमसाए का मकान,
अपने मकां में शम्आ जलाना गुनाह है।
-खुमार बाराबंकवी

Tuesday, May 14, 2013

बुझ गया दिल हयात बाक़ी है
छुप गया चाँद रात बाक़ी है

हाले-दिल उन से कह चुके सौ बार
अब भी कहने की बात बाक़ी है

रात बाक़ी थी जब वो बिछड़े थे
कट गई उम्र रात बाक़ी है

इश्क़ में हम निभा चुके सबसे 'ख़ुमार'
बस एक ज़ालिम हयात बाक़ी है
-ख़ुमार बाराबंकवी

(हयात = जीवन)

Sunday, April 7, 2013

काफ़ी है अर्ज़े-ग़म के लिए मुज़महिल हँसी,
रो-रो के इश्क़ को न तमाशा बनाइए ।

[(अर्ज़े-ग़म = ग़म का बयान), (मुज़महिल  = शिथिल, थकी हुई)]

बेमौत मार डालेंगी ये होशमन्दियाँ,
जीने की आरज़ू है तो धोके भी खाइए ।

(होशमंदी = अकलमंदी)

-खुमार बाराबंकवी

Monday, February 4, 2013

हाले-ग़म उन को सुनाते जाइए
शर्त ये है मुस्कुराते जाइए

आप को जाते न देखा जाएगा
शम्मअ को पहले बुझाते जाइए

शुक्रिया लुत्फ़े-मुसलसल का मगर
गाहे-गाहे दिल दुखाते जाइए

[(लुत्फ़े-मुसलसल = लगातार आनंद), (गाहे-गाहे = कभी कभी)]

दुश्मनों से प्यार होता जाएगा
दोस्तों को आज़माते जाइए

रोशनी महदूद हो जिनकी 'ख़ुमार'
उन चराग़ों को बुझाते जाइए

(महदूद = जिसकी हद बाँध दी गई हो, सीमित)

-खुमार बाराबंकवी

Sunday, December 16, 2012

न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है,
दिया जल रहा है, हवा चल रही है।

सुकूं ही सुकूं है खुशी ही खुशी है,
तेरा ग़म सलामत मुझे क्या कमी है।

खटक गुदगुदगी का मज़ा दे रही है,
जिसे इश्क़ कहते है शायद यही है।

चिरागों के बदले मकां जल रहे हैं,
नया है ज़माना, नई रौशनी है ।

मेरे राह पर मुझको गुमराह कर दे
सुना है कि मंज़िल करीब आ गई है

-ख़ुमार बाराबंकवी

Wednesday, September 26, 2012

मुद्दत से किसी दर्द का तोहफ़ा नहीं आया
क्या हादिसे भी मेरा पता भूल गए हैं
-खुमार बाराबंकवी