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Wednesday, September 21, 2016

आना भी नहीं है कहीं जाना भी नहीं है

आना भी नहीं है कहीं जाना भी नहीं है
अब मिलने मिलाने का ज़माना भी नहीं है

तुम भी तो मेरे चाहने वालों में थे शामिल
किस्सा ये कोई ख़ास पुराना भी नहीं है

इस दिल में कई राज़ तो ऐसे भी हैं जिनको
करना भी नहीं याद भुलाना भी नहीं है

मंदिर में भी, मैखाने में भी शोर बहुत है
अपना तो कहीं और ठिकाना भी नहीं है

दुनिया को बुरा कहना है हर हाल में लेकिन
दुनिया को हमें छोड़ के जाना भी नहीं है

साहिल पे गुज़र हो तो समंदर से गरज़ क्या
खोना भी नहीं कुछ हमें पाना भी नहीं है

कुछ लोग न समझे हैं न समझेंगे हकीकत
हमको ये ग़ज़ल उनको सुनाना भी नहीं है

-अशोक मिज़ाज बद्र