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Friday, May 8, 2020

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना
जो लिखना कभी तो मुहब्बत पे लिखना।

है ग़ाफ़िल बहुत ही यतीमों से दुनिया
लिखो तुम तो उनकी अज़ीयत पे लिखना।

(ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर), (अज़ीयत = पीड़ा, अत्याचार, व्यथा, यातना, कष्ट, तक़लीफ़)

चले जब हवा नफ़रतों की वतन में
ज़रूरी बहुत है मुहब्बत पे लिखना।

हसीनों पे लिखना अगर हो ज़रूरी
तो सूरत नहीं उनकी सीरत पे लिखना।

अगर बात निकले लिखो अपने घर पे
इबादत बराबर है जन्नत पे लिखना।

सितम कौन समझा है इसके कभी भी
है मुश्किल ज़माने की फितरत पे लिखना।

अगर मुझपे लिखना पड़े बाद मेरे
तो चाहत पे लिखना अक़ीदत पे लिखना।

(अक़ीदत = श्रद्धा, आस्था, विश्वास)

-विकास वाहिद

Monday, November 25, 2019

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा

वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा

तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में
वो श्याम तो किसी मीरा की चश्म-ए-तर में रहा

(चश्म-ए-तर = भीगी आँखें)

वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की
मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा

हज़ारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में
उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा

-गोपालदास नीरज

Thursday, August 15, 2019

लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Friday, February 15, 2019

वतन को फूँक रहे हैं बहुत से अहल-ए-वतन
चराग़ घर के हैं सरगर्म घर जलाने में
-महताब आलम

(अहल-ए-वतन = देश के लोग, देशवासी)

इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

संतान हँसे तो कैसे हँसे
इस वक़्त है माता ख़तरे में
संसार के पर्बत का राजा
है अपना हिमाला ख़तरे में
है सामना कितने ख़तरों का
है देश की सीमा ख़तरे में
ऐ दोस्त वतन से घात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

मेहंदी हुई पीली कितनों की
सिंदूर लुटे हैं कितनों के
हैं चूड़ियाँ ठंडी कितनों की
अरमान जले हैं कितनों के
इस चीन के ज़ालिम हाथों से
संसार फुंके हैं कितनों के
मुस्कान की तू बरसात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

मत काट कपट कर माता से
देना है जो कुछ ईमान से दे
ये प्रश्न वतन की लाज का है
जी खोल के दे जी जान से दे
गौरव की हिफ़ाज़त कर अपने
दे धन भी तो प्यारे आन से दे
तू दान न दे ख़ैरात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

जिस घर में बरसता था जीवन
छाई है वहाँ पर वीरानी
बेवा हुईं कितनी सुंदरियाँ
मारे गए कितने सेनानी
क्यूँ जोश नहीं आता तुझ को
है ख़ून रगों में या पानी
आज़ादी के दिन को रात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

सुनते हैं मुसीबत आएगी
आएगी तो देखा जाएगा
जिस ने हमें कायर समझा है
उस देश से समझा जाएगा
हर शोख़ अदा से खेल चुके
अब ख़ून से खेला जाएगा
ऐसे में हमें बे-हात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

अब बैंड पे गाया जाएगा
ये साज़ न छेड़े जाएँगे
ले रख दे ठिकाने से ये ग़ज़ल
मरने से बचे तो गाएँगे
है साथ हमारे सच्चाई
हम पा के विजय मुस्काएँगे
जीती हुई बाज़ी मात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

-नज़ीर बनारसी

Saturday, August 16, 2014

छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी
नये दौर में लिखेंगे मिलकर नई कहानी
हम हिन्दुस्तानी, हम हिन्दुस्तानी ...

आज पुरानी ज़ंजीरों को तोड़ चुके हैं
क्या देखें उस मंज़िल को जो छोड़ चुके हैं
चाँद के दर पे जा पहुंचा है आज ज़माना
नये जगत से हम भी नाता जोड़ चुके हैं
नया ख़ून है, नयी उमंगें, अब है नयी जवानी
हम हिन्दुस्तानी, हम हिन्दुस्तानी ...

हमको कितने ताजमहल हैं और बनाने
कितने हैं अजंता हम को और सजाने
अभी पलटना है रुख़ कितने दरियाओं का
कितने पवर्त राहों से हैं आज हटाने
नया ख़ून है, नयी उमंगें, अब है नयी जवानी
हम हिन्दुस्तानी, हम हिन्दुस्तानी ...

आओ मेहनत को अपना ईमान बनाएं
अपने हाथों को अपना भगवान बनाएं
राम की इस धरती को गौतम की भूमी को
सपनों से भी प्यारा हिंदुस्तान बनाएं
नया ख़ून है, नयी उमंगें, अब है नयी जवानी
हम हिन्दुस्तानी, हम हिन्दुस्तानी ...

दाग गुलामी का धोया है जान लुटा के
दीप जलाए हैं ये कितने दीप बुझा के
ली है आज़ादी तो फिर इस आज़ादी को
रखना होगा हर दुश्मन से आज बचा के
नया ख़ून है, नयी उमंगें, अब है नयी जवानी
हम हिन्दुस्तानी, हम हिन्दुस्तानी

हर ज़र्रा है मोती आँख उठाकर देखो
माटी में सोना है हाथ बढ़ाकर देखो
सोने की ये गंगा है चांदी की यमुना
चाहो तो पत्थर से धान उगाकर देखो
नया ख़ून है, नयी उमंगें, अब है नयी जवानी
हम हिन्दुस्तानी, हम हिन्दुस्तानी ...
-प्रेम धवन


Friday, June 6, 2014

हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है
हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है

किसी का पूछना कब तक हमारी राह देखोगे
हमारा फ़ैसला जब तक भी ये बीनाई रहती है

(बीनाई = आँखों की रौशनी, दृष्टि)

मेरी सोहबत में भेजो ताकि इसका डर निकल जाए
बहुत सहमी हुए दरबार में सच्चाई रहती है

(सोहबत = संगति)

बस इक दिन फूट कर रोया था मैं तेरी मुहब्बत में
मगर आवाज़ मेरी आज तक भर्राई रहती है

बचो उस शोख़ की आँखों से वरना डूब जाओगे
समन्दर के किनारे भी बहुत गहराई रहती है

गिले-शिकवे ज़रूरी हैं अगर सच्ची मुहब्बत है
जहाँ पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे मुल्क को गन्दी सियासत से
शराबी देवरों के बीच में भौजाई रहती है

(महफ़ूज़ = सुरक्षित)

-मुनव्वर राना

Monday, December 2, 2013

दर ओ दीवार पे शक्लें सी बनाने आई
फिर ये बारिश मेरी तन्हाई चुराने आई

ज़िन्दगी बाप की मानिंद सजा देती है
रहम-दिल माँ की तरह मौत बचाने आई

आज कल फिर दिल-ए-बर्बाद की बातें है वही
हम तो समझे थे के कुछ अक्ल ठिकाने आई

दिल में आहट सी हुई रूह में दस्तक गूँजी
किस की खुशबू ये मुझे मेरे सिरहाने आई

मैं ने जब पहले-पहल अपना वतन छोड़ा था
दूर तक मुझ को इक आवाज़ बुलाने आई

तेरी मानिंद तेरी याद भी ज़ालिम निकली
जब भी आई है मेरा दिल ही दुखाने आई
-कैफ़ भोपाली

Saturday, October 5, 2013

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे, ए आसमाँ
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है

ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा ये टशन में थ्रिल में है

आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के तिल में है

आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है

हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है
-पीयूष मिश्रा


Saturday, July 13, 2013

सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आजाद है

(नाशाद = दुखी)

कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आंकिए
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पे आबाद है

(मेआर = मानदंड)

जिस शहर में मुंतज़िम अंधे हो जल्वागाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है

(मुंतज़िम = प्रबंधक, व्यवस्थापक),

ये नई पीढ़ी पे मबनी है वहीं जज्मेंट दे
फल्सफा गांधी का मौजूं है कि नक्सलवाद है

[(मबनी = निर्भर), (मौजूं = उचित, उपयुक्त)]

यह ग़ज़ल मरहूम मंटों की नजर है, दोस्तों
जिसके अफसाने में ‘ठंडे गोश्त’ की रुदाद है

(रुदाद = वृतांत, विवरण)

-अदम गोंडवी

Thursday, June 20, 2013

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्‍नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्‍क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

-अदम गोंडवी

Wednesday, June 19, 2013

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये

मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये
-अदम गोंडवी
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे

ये वन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे

सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
-अदम गोंडवी

Wednesday, June 12, 2013

नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

मुलाक़ातों पे हँसते बोलते हैं मुस्कराते हैं
तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात दिन दोनों
मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल ने
वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

(मसायल=समस्याओं)

मेरा दुश्मन मुझे तकता है मैं दुश्मन को तकता हूँ
कि हायल राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

(हायल=बाधक, कठिन)

मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है
मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

-मुनव्वर राना

Sunday, February 24, 2013

जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत ....

वो देखो कैसा हुआ उजाला
वो ख़ुशबुओं ने चमन सँभाला
वो मस्जिदों में खिला तबस्सुम
वो मुस्कुराया है फिर शिवाला

जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत ....

तो जन्नतों से सलाम आये
पयम्बरों के पयाम आये                              (पयम्बर = संदेशवाहक), (पयाम = संदेश)
फ़रिश्ते कौसर के जाम लाये                        (कौसर = जन्नत की एक नहर का नाम)
हवा में दीपक से झिलमिलाये

जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत ....

तो लब गुलाबों के फिर से महके
नगर शबाबों के फिर से महके
किसी ने रक्खा है फूल फिर से
वरक़ किताबों के फिर से महके

जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत ....

मुहब्बतों की दुकाँ नहीं है
वतन नहीं है मकाँ नहीं है
क़दम का मीलों निशाँ नहीं है
मगर बता ये कहाँ नहीं है

यही है फूलों की मुस्कुराहट
यही है रिश्तों की जगमगाहट
यही है लोरी की गुनगुनाहट
यही है पायल की नर्म आहट

कहीं पे गीता, कुरान है ये
कहीं पे पूजा, अज़ान है ये
सदाक़तों की ज़ुबान है ये                                 (सदाक़तों = सच्चाइयों)
खुला-खुला आसमान है ये

तरक्कियों का समाज जागा
कि बालियों में अनाज जागा
क़ुबूल होने लगी है मन्नत
धरा को तकने लगी है जन्नत

....जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत

-आलोक श्रीवास्तव

Saturday, February 23, 2013

आबो-हवा देश की बहुत साफ़ है
क़ायदा है, क़ानून है, इंसाफ़ है
अल्लाह-मियाँ जाने कोई जिए या मरे
आदमी को खून-वून सब माफ़ है

... और क्या कहूं?
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
-गुलज़ार

Sunday, February 17, 2013

जो रिश्ते हैं हक़ीक़त में वो अब रिश्ते नहीं होते
हमें जो लगते हैं अपने वही अपने नहीं होते

कशिश होती है कुछ फूलों में ,पर ख़ुशबू नहीं होती
ये अच्छी सूरतों वाले सभी अच्छे नहीं होते

वतन की जो तरक़्क़ी है अभी तो वो अधूरी है
वो घर भी हैं, दवाई के जहाँ पैसे नहीं होते

इन्हें जो भी बनाते हैं वो हम तुम ही बनाते हैं
किसी मज़हब की साजिश में कभी बच्चे नहीं होते

सभी के पेट को रोटी, बदन पे कपड़े,सर पे छत
बहुत अच्छे हैं ये सपने मगर सच्चे नहीं होते

पसीने की सियाही से जो लिखते हैं इरादों को
'तुषार' उनके मुक़द्दर के सफ़े कोरे नहीं होते
-नित्यानंद 'तुषार'

Sunday, February 3, 2013

उधर इस्लाम ख़तरे में, इधर है राम ख़तरे में,
मगर मैं क्या करूँ, है मेरी सुबहो-शाम ख़तरे में।

वो ग़म वाले से बम वाले हुए उनको पता क्यूँ हो,
के मुश्किल में मेरी रोटी, है मेरा जाम ख़तरे में।

ये क्या से क्या बना डाला है हमने मुल्क को अपने,
कहीं हैरी, कहीं हामिद, कहीं हरनाम ख़तरे में।

ग़ज़लगोई, ये अफ़साने, रिसाले और तहरीकें,
किताबत, सचकलामी, हाय सारे काम ख़तरे में।

(रिसाला = पत्र, पुस्तकें), (तहरीक = आंदोलन/ प्रस्ताव), (किताबत = लिखना)

न बोलो सच ज़ियादा 'नूर' वर्ना लोग देखेंगे,
तुम्हारी जान जोख़िम में तुम्हारा नाम ख़तरे में।

-नूर मुहम्मद नूर

Thursday, January 10, 2013

धुंध-सी छाई हुई है आज घर के सामने,
कुछ नज़र आता नहीं है अब नज़र के सामने।

सिर कटाओ या हमारे सामने सजदा करो,
शर्त ये रख दी गई है हर बशर के सामने।

सोचता हूँ क्यूँ अदालत ने बरी उसको किया,
क़त्ल करके जो गया सारे नगर के सामने।

देर तक देखा मुझे और फिर किसी ने ये कहा,
आज तो मुझको पढ़ो, मैं हूँ नज़र के सामने।

कल सड़क पर मर गए थे ठंड से कुछ आदमी,
देश की उन्नति बताते पोस्टर के सामने।

लौटना मत बीच से पूरा करो अपना सफ़र,
हल करो वो मुश्किलें जो हैं डगर के सामने।
-नित्यानंद 'तुषार'

Sunday, January 6, 2013

जो शख्स़ भी तहज़ीबे-कुहन छोड़ रहा है,
वो अपने बुज़ुर्गों का चलन छोड़ रहा है।

(तहज़ीबे-कुहन = पुरानी संस्कृति)

अल्लाह निगहबान! मिरा लाडला बेटा,
'डॉलर' के लिये अपना वतन छोड़ रहा है।

शायद कि वो कांधा भी तुझे देने न पहुंचे,
तू जिन के लिये अपना ये धन छोड़ रहा है।

ये तर्क की है कौन सी मंज़िल या रब,
दुनिया की हर इक चीज़ को मन छोड़ रहा है।

(तर्क =  छोड़ने की क्रिया, परित्याग)

उरियानी का वो दौर मआज़-अल्लाह है जारी,
मुर्दा भी यहां अपना कफ़न छोड़ रहा है।

[(उरियानी = नंगापन, नग्नता), (मआज़-अल्लाह = ईश्वर रक्षा करे)]

-राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’