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Wednesday, April 1, 2020

सुब्ह होती है शाम होती है
उम्र यूँही तमाम होती है
-मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम

Friday, October 11, 2019

कीमती सब पैरहन भी देखिए

कीमती सब पैरहन भी देखिए
और फिर अपना क़फ़न भी देखिए।

(पैरहन = वस्त्र, कपड़े)

देख कर इस जिस्म को जी भर के फिर
हो सके तो अब ये मन भी देखिए।

डूबता सूरज भी है दिलकश मगर
भोर की पहली किरन भी देखिए।

पूछिये रिश्ता मेरा फिर नींद से
पहले बिस्तर की शिकन भी देखिए।

(शिकन = सलवटें)

देखिये लब पे हंसी लेकिन कभी
जिस्म में पसरी थकन भी देखिए।

उस तरफ़ ख़्वाहिश हज़ारों मुंतज़िर
इस तरफ़ दारो रसन भी देखिए।

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (दारो रसन = फांसी का फंदा)

- विकास "वाहिद"
०९/१०/२०१९

Saturday, May 4, 2019

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो
होश वाले हो तो हर बात को समझा न करो

(लफ़्ज़ ओ मंज़र = शब्द और दृश्य), (मआनी = अर्थ, मतलब, माने)

वो नहीं है न सही तर्क-ए-तमन्ना न करो
दिल अकेला है इसे और अकेला न करो

(तर्क-ए-तमन्ना = इच्छाओं/ चाहतों का त्याग)

बंद आँखों में हैं नादीदा ज़माने पैदा
खुली आँखों ही से हर चीज़ को देखा न करो

(नादीदा = अदृष्ट, अप्रत्यक्ष, अगोचर, Unseen)

दिन तो हंगामा-ए-हस्ती में गुज़र जाएगा
सुब्ह तक शाम को अफ़्साना-दर-अफ़्साना करो

(हंगामा-ए-हस्ती = जीवन की उथल-पुथल/ अस्तव्यस्तता)

-महमूद अयाज़

Friday, April 26, 2019

कब हुई फिर सुब्ह कब ये रात निकली

कब हुई फिर सुब्ह कब ये रात निकली
कल तेरी जब बात से फिर बात निकली।

जुर्म तुझको याद करने का किया फिर
करवटें बदलीं कई तब रात निकली।

आज़मा के देख ली दुनिया भी हमने
ना कोई सौग़ात ना ख़ैरात निकली।

रंग निकला है शराफ़त का ही पहले
आदमी की अस्ल फिर औक़ात निकली।

जिस्म भीगा पर न भीगी रूह अब तक
इस बरस भी राएगां बरसात निकली।

(राएगां = व्यर्थ)

- विकास वाहिद
२५/४/१९

Tuesday, March 19, 2019

इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे
इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे
-इशरत क़ादरी

(शब-ए-ग़म = दुःख की रात), (शाम-ए-अलम = दुःख की शाम)

Sunday, March 10, 2019

अंधी बस्ती में इक अजूबा हूँ

अंधी बस्ती में इक अजूबा हूँ
आँख रखता हूँ और गूँगा हूँ

दिन तमाशाई मुझ को क्या जाने
मेरी रातों से पूछ कैसा हूँ

रंग-ए-दुनिया भी इक तमाशा है
अपने हाथों में इक खिलौना हूँ

मेरी मशअ'ल से रात पिघली थी
सुब्ह तिनका सा मैं ही बहता हूँ

क्या ये दुनिया ही चाह-ए-बाबुल है
आदमी हूँ या मैं फ़रिश्ता हूँ

ख़ुद को पाने की क्या सबील करूँ
मैं इन्ही रास्तों में खोया हूँ

(सबील = मार्ग, रास्ता, उपाय, यत्न, तदबीर, पद्धति, शैली)

-मोहम्मद असदुल्लाह

Thursday, April 13, 2017

कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा

कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा

(सहरा = रेगिस्तान, जंगल, बयाबान, वीराना, विस्तार)

तेरे पहलू से जो उठ्ठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख़्स को पाऊँगा जिधर जाऊँगा

अब तिरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

(साया-ए-अब्र = बादल की परछाई)

तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वर्ना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मिरा मेआर कि मैं
ज़ख़्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा

(चारासाज़ों = चिकित्सकों), (मेआर = मानदंड)

अब तो ख़ुर्शीद को गुज़रे हुए सदियाँ गुज़रीं
अब उसे ढूँढने मैं ता-ब-सहर जाऊँगा

(ख़ुर्शीद = सूरज), (ता-ब-सहर = सुबह तक)

ज़िंदगी शम्अ' की मानिंद जलाता हूँ 'नदीम'
बुझ तो जाऊँगा मगर सुब्ह तो कर जाऊँगा

-अहमद नदीम क़ासमी

Wednesday, June 29, 2016

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम
बच कर चले हमेशा मगर क़ाफ़िलों से हम

होने को रुशनास नयी उलझनों से हम
मिलते हैं रोज़ अपने कई दोस्तों से हम

(रुशनास = परिचित)

बरसों फ़रेब खाते रहे दूसरों से हम
अपनी समझ में आए बड़ी मुश्किलों से हम

मंज़िल की है तलब तो हमें साथ ले चलो
वाकिफ़ हैं ख़ूब राह की बारीकियों से हम

जिनके परों पे सुबह की ख़ुशबू के रंग हैं
बचपन उधार लाए हैं उन तितलियों से हम

कुछ तो हमारे बीच कभी दूरियाँ भी हों
तंग आ गए हैं रोज़ की, नज़दीकियों से हम

गुज़रें हमारे घर की किसी रहगुज़र से वो
परदें हटाएँ, देखें उन्हें खिड़कियों से हम

जब भी कहा के - 'याद हमारी कहाँ उन्हें ?
पकड़े गए हैं ठीक तभी, हिचकियों से हम

-आलोक श्रीवास्तव

Wednesday, February 24, 2016

रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम

रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम
अपनी आँखों में कोई महताब कहाँ रखते हैं हम

(असबाब = सामान), (महताब =चन्द्रमा)

यह अपनी ज़रखेज़ी है जो खिल जाते हैं फूल नए
वरना अपनी मिट्टी को शादाब कहाँ रखते हैं हम

(ज़रखेज़ = उर्वर, उपजाऊ), (शादाब = हरा-भरा, प्रफुल्लित)

हम जैसों कि नाकामी पर क्यों हैरत है दुनिया को
हर मौसम में जीने के आदाब कहाँ रखते हैं हम

महरूमी ने ख़्वाबों में भी हिज्र के काँटे बोए हैं
उसका पैकर मर्मर का कमख़्वाब कहाँ रखते हैं हम

(महरूमी = विफलता, अभाग्य, वंचित होने का भाव), (हिज्र = बिछोह, जुदाई), (मर्मर = संगमरमर जैसा सफ़ेद), (पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख), (कमख़्वाब = एक प्रकार का बहुमूल्य कपड़ा)

तेज़ हवा के साथ उड़े हैं जो औराक़ सुनहरे थे
अब क़िस्से में दिलचस्पी का बाब कहाँ रखते हैं हम

(औराक़ = पुस्तक के पन्ने), (बाब = किताब का अध्याय, परिच्छेद)

सुब्ह सवेरे आँगन अपना गूँज उठे चहकारों से
तोता मैना बुलबुल या सुर्ख़ाब कहाँ रखते हैं हम

(सुर्ख़ाब = एक जलपक्षी, चकवा)

- आलम खुर्शीद
खुलती है मेरी आँखें हमेशा ही देर से
इक धूप आ के लौट गई है मुंडेर से
-आलम खुर्शीद

Sunday, November 1, 2015

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफ़िर की तरह

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफ़िर की तरह
सिर्फ़ इक बार मुलाक़ात का मौका दे दे

मेरी मंज़िल है, कहाँ मेरा ठिकाना है कहाँ
सुबह तक तुझसे बिछड़ कर मुझे जाना है कहाँ
सोचने के लिए इक रात का मौका दे दे

अपनी आंखों में छुपा रक्खे हैं जुगनू मैंने
अपनी पलकों पे सजा रक्खे हैं आंसू मैंने
मेरी आंखों को भी बरसात का मौका दे दे

आज की रात मेरा दर्द-ऐ-मोहब्बत सुन ले
कंप-कंपाते हुए होठों की शिकायत सुन ले
आज इज़हार-ऐ-ख़यालात का मौका दे दे

भूलना ही था तो ये इक़रार किया ही क्यूँ था
बेवफा तूने मुझे प्यार किया ही क्यूँ था
सिर्फ़ दो चार सवालात का मौका दे दे

-कैसर उल जाफ़री

Qawwali

                                                         Ghulam Ali/ ग़ुलाम अली 

Saturday, August 1, 2015

यह न सोचो कल क्या हो

यह न सोचो कल क्या हो
कौन कहे इस पल क्या हो

रोओ मत, न रोने दो
ऐसी भी जल-थल क्या हो

बहती नदी की बांधे बांध
चुल्लू में हलचल क्या हो

हर छन हो जब आस बना
हर छन फिर निर्बल क्या हो

रात ही गर चुपचाप मिले
सुबह फिर चंचल क्या हो

आज ही आज की कहें-सुने
क्यों सोचें कल, कल क्या हो

-मीना कुमारी 'नाज़'

Friday, May 1, 2015

जगत कर्ता जगत हर्ता तो केवल राम होता है
उसी का नाम होठों पर सुबह और शाम होता है

यहाँ सब लोग जाने क्यूं हमीं पर तंज हैं कसते
बिचारा 'आरसी' तो मुफ्त में बदनाम होता है

-आर० सी० शर्मा "आरसी"

Sunday, April 19, 2015

लाख आफ़ताब पास से होकर गुज़र गए
हम बैठे इंतज़ार-ए-सहर देखते रहे
-जिगर मुरादाबादी

(आफ़ताब =  सूरज), (इंतज़ार-ए-सहर = सुबह का इंतज़ार)

 

Thursday, November 20, 2014

फ़िज़ा तबस्सुम-ए-सुबह-ए-बहार थी लेकिन
पहुँच के मंज़िल-ए-जाँना पे आँख भर आई

-फ़िराक़ गोरखपुरी

(फ़िज़ा = वातावरण),  (तबस्सुम-ए-सुबह-ए-बहार = बहार की सुबह की मुस्कराहट), (मंज़िल-ए-जाँना = प्रियतम को पाना) 

Monday, October 20, 2014

तुम आए हो न शब-ए-इंतज़ार गुज़री है

तुम आए हो न शब-ए-इंतज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है

(शब-ए-इंतज़ार = इंतज़ार की रात), (सहर = सुबह)

जुनूँ में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है
अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है

(ब-कार = काम करते हुए)

हुई है हज़रते-नासेह से गुफ़्तगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कू-ए-यार गुज़री है

(हज़रते-नासेह = उपदेशक महोदय), (शब = रात), (सरे-कू-ए-यार = यार की गली में)

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है

(ग़ारते-गुलचीं = फूल चुनने वाले की लाई हुई तबाही), (क़फ़स = पिंजरा), (सबा = बयार, हवा)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

नूरजहाँ/ Noorjahan



अमानत अली/ Amanat Ali



Dr. Radhika Chopda/ डा राधिका चोपड़ा 

Saturday, August 16, 2014

क्या हुआ कोशिश अगर ज़ाया गई
दोस्ती हमको निभानी आ गई |

(ज़ाया = बेकार, व्यर्थ)

बाँधकर रखता भला कैसे उसे
आज पिंजर तोड़कर चिड़िया गई |

चूड़ियों की खनखनाहट थी सुबह
शाम को लौटी तो घर तन्हा गई |

लहलहाते खेत थे कल तक यहाँ
आज माटी गाँव की पथरा गई |

कैस तुमको फ़ख्र हो माशूक पर
पत्थरों के बीच फिर लैला गई |

आज फिर आँखों में सूखा है 'सलिल'
ज़िन्दगी फिर से तुम्हें झुठला गई |

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Monday, December 16, 2013

आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा

आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा
सिर किये ऊँचा खड़ी है घास तो अच्छा लगा

आज फिर लौटा सलामत राम कोई अवध में
हो गया पूरा कड़ा बनवास तो अच्छा लगा

था पढ़ाया मांज कर बरतन घरों में रात-दिन
हो गया बुधिया का बेटा पास तो अच्छा लगा

लोग यों तो रोज़ ही आते रहे, आते रहे
आज लेकिन आप आये पास तो अच्छा लगा

क़त्ल, चोरी, रहज़नी व्यभिचार से दिन थे मुखर
चुप रहा कुछ आज का दिन ख़ास तो अच्छा लगा

ख़ून से लथपथ हवाएँ ख़ौफ-सी उड़ती रहीं
आँसुओं से नम मिली वातास तो अच्छा लगा

है नहीं कुछ और बस इंसान तो इंसान है
है जगा यह आपमें अहसास तो अच्छा लगा

हँसी हँसते हाट की इन मरमरी महलों के बीच
हँस रहा घर-सा कोई आवास तो अच्छा लगा

रात कितनी भी घनी हो सुबह आयेगी ज़रूर
लौट आया आपका विश्वास तो अच्छा लगा

आ गया हूँ बाद मुद्दत के शहर से गाँव में
आज देखा चाँदनी का हास तो अच्छा लगा

दोस्तों की दाद तो मिलती ही रहती है सदा
आज दुश्मन ने कहा–शाबाश तो अच्छा लगा
-रामदरश मिश्र

Saturday, December 7, 2013

हर इक आग़ाज़ का अंजाम तय है
सहर कोई हो उसकी शाम तय है

हिरन सोने का चाहेगी जो सीता
बिछड़ जाएँगे उस से राम तय है
-राजेश रेड्डी

Tuesday, December 3, 2013

बना कर हाथ को तकिया वो अब फुटपाथ पे सोता,
कभी जिस शख्स में गणतंत्र का उल्लास देखा था  |
मिरी आँखें उजाला देख कर खुलने से कतरातीं,
इन्ही आँखों से मैनें भोर का विन्यास देखा था |
-आर० सी० शर्मा "आरसी"