Showing posts with label ख़याल. Show all posts
Showing posts with label ख़याल. Show all posts

Wednesday, July 3, 2024

 वो और होंगे जिन से ये उक़दा खुला नहीं
लेकिन मैं अपनी ज़ात से ना-आश्ना नहीं

आँसू नहीं  ग़ुरूर नहीं और हया नहीं
आँखों में है ये क्या जो मुझे सूझता नहीं

ऐ दिल ज़माने भर से तवक़्क़ो बजा नहीं
हर कोई बावफ़ा सर-ए-राह-ए-वफ़ा नहीं

अपने किए पे तुम हो पशेमान किसलिए
ये रंज-ओ-ग़म ये दर्द मेरा मस'अला नहीं

कुछ कुछ ख़याल-ए-यार में उलझा हुआ तो है
यूँ ख़ास कशमकश में ये दिल मुब्तिला नहीं

दिल तो है फिर भी दिल इसे रखिए सँभाल कर
माना कि आजकल ये किसी काम का नहीं

बाक़ी रहा न लुत्फ़ सवाल-ओ-जवाब में
हर बात पे वो कहते हैं मुझ को पता नहीं

'पैहम' को आते देख के चिढ़ते हो किसलिए
वाइज़ नहीं वो शैख़ नहीं पारसा नहीं

-सत्यपाल 'पैहम'

Monday, May 11, 2020

आये ज़ुबाँ पे राज़-ए-मोहब्बत मुहाल है

आये ज़ुबाँ पे राज़-ए-मोहब्बत मुहाल है
तुमसे मुझे अजीज़ तुम्हारा ख़याल है

दिल था तेरे ख़्याल से पहले चमन चमन
अब भी रविश रविश है मगर पायमाल है

(रविश = बाग़ की क्यारियों के बीच का छोटा मार्ग, गति, रंग-ढंग), (पायमाल = कुचला हुआ, दुर्दशाग्रस्त)

कम्बख़्त इस जूनून-ए-मोहब्बत को क्या करूँ
मेरा ख़याल है न तुम्हारा ख़याल है

-जिगर मुरादाबादी 

Thursday, April 23, 2020

धोखा है इक फ़रेब है मंज़िल का हर ख़याल
सच पूछिए तो सारा सफ़र वापसी का है
-राजेश रेड्डी

Wednesday, April 15, 2020

दिल मुसाफ़िर ही रहा सू-ए-सफ़र आज भी है
हाँ! तसव्वुर में मगर पुख़्ता सा घर आज भी है

(सू-ए-सफ़र = यात्रा की ओर), (तसव्वुर = कल्पना, ख़याल, विचार, याद),

कितने ख़्वाबों की बुनावट थी धनुक सी फैली
कू-ए-माज़ी में धड़कता वो शहर आज भी है

(कू-ए-माज़ी = अतीत की गली)

बाद मुद्दत के मिले, फिर भी अदावत न गयी
लफ़्जे-शीरीं में वो पोशीदा ज़हर आज भी है

(लफ़्जे-शीरीं = मीठे शब्द), (पोशीदा = छिपा हुआ)

नाम हमने जो अँगूठी से लिखे थे मिलकर
ग़ुम गये हैं मगर ज़िन्दा वो शज़र आज भी है

(शज़र = पेड़, वृक्ष)

अब मैं मासूम शिकायात पे हँसता तो नहीं
पर वो गुस्से भरी नज़रों का कहर आज भी है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

Thursday, June 27, 2019

'बद्र' जब आगही से मिलता है

'बद्र' जब आगही से मिलता है
इक दिया रौशनी से मिलता है

(आगही  = ज्ञान, जानकारी, समझ-बूझ, चेतना, सूचना)

चाँद तारे शफ़क़ धनक खुशबू
सिलसिला ये उसी से मिलता है

(शफ़क़ = किरणे, सवेरे या शाम की लालिमा जो क्षितिज पर होती है), (धनुक = इन्द्रधनुष)

जितनी ज़ियादा है कम है उतनी ही
ये चलन आगही से मिलता है

(आगही  = ज्ञान, जानकारी, समझ-बूझ, चेतना, सूचना)

दुश्मनी पेड़ पर नहीं उगती
ये समर दोस्ती से मिलता है

(समर=फल)

यूँ तो मिलने को लोग मिलते हैं
दिल मगर कम किसी से मिलता है

'बद्र' आप और ख़याल भी उस का
साया कब रौशनी से मिलता है

-साबिर बद्र जाफ़री

Friday, June 7, 2019

चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही
जला के अपना दिया रौशनी मकान में ला

(ताबनाक = प्रकाशमान, चमकदार, चमकीला)

है वो तो हद्द-ए-गिरफ़्त-ए-ख़याल से भी परे
ये सोच कर ही ख़याल उस का अपने ध्यान में ला

(हद्द-ए-गिरफ़्त-ए-ख़याल = विचारों की सीमा से परे)

-अकबर हैदराबादी


Sunday, June 2, 2019

सुन कर मिरी ग़ज़ल को कहीं, मुस्कुरा न दे
यानी मिरे ख़याल को, पैकर बना न दे

यूँ ग़म छुपा के हँसता हूँ, जैसे नया रईस
अहबाब को भी अपना, पुराना पता न दे

-अफ़सर अमरोहवी

(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख, जिस्म), (अहबाब = दोस्त, प्रिय-जन, स्वजन, मित्र)

Thursday, May 30, 2019

हसद की आग थी और दाग़ दाग़ सीना था

हसद की आग थी और दाग़ दाग़ सीना था
दिलों से धुल न सका वो ग़ुबार-ए-कीना था

(हसद = ईर्ष्या, जलन), (ग़ुबार-ए-कीना = )

ज़रा सी ठेस लगी थी कि चूर चूर हुआ
तिरे ख़याल का पैकर भी आबगीना था

(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख),  (आबगीना = पतले काँच की बड़े पेट की बोतल, जो शराब या गुलाब जल रखने के काम आती थी)

रवाँ थी कोई तलब सी लहू के दरिया में
कि मौज मौज भँवर उम्र का सफ़ीना था

(रवाँ  = बहता हुआ, प्रवाहमान), (सफ़ीना = नाव, किश्ती)

वो जानता था मगर फिर भी बे-ख़बर ही रहा
अजीब तौर था उस का अजब क़रीना था

(क़रीना = सलीका, ढंग, तमीज़)

बहुत क़रीब से गुज़रे मगर ख़बर न हुई
कि उजड़े शहर की दीवार में दफ़ीना था

(दफ़ीना = ज़मीन में गड़ा हुआ धन)

-खलील तनवीर

Friday, May 24, 2019

ख़िज़ां की रुत में गुलाब लहजा बनाके रखना, कमाल ये है

ख़िज़ां की रुत में गुलाब लहजा बनाके रखना, कमाल ये है
हवा की ज़द पे दिया जलाना, जला के रखना, कमाल ये है

(ख़िज़ां = पतझड़), (ज़द=निशाना, सामना, target)

ज़रा सी लरज़िश पे तोड़ देते हैं, सब तअल्लुक़, ज़माने वाले
सो ऐसे वैसों से भी तअल्लुक़, बना के रखना, कमाल ये है

(लरज़िश = थरथराहट, कँपकँपी, ग़लती)

किसी को देना ये मश्वरा के, वो दुःख बिछड़ने का, भूल जाए
और ऐसे लम्हे में अपने आँसू, छुपा के रखना, कमाल ये है

ख़याल अपना, मिज़ाज अपना, पसंद अपनी, कमाल क्या है
जो यार चाहे वो हाल अपना, बना के रखना, कमाल ये है

किसी की राह से ख़ुदा की ख़ातिर, उठा के कांटे, हटा के पत्थर
फिर उस के आगे निगाह अपनी, झुका के रखना, कमाल ये है

वो जिसको देखे तो दुःख का लश्कर भी लड़खाए, शिकस्त खाए
लबों पे अपने वो मुस्कुराहट, सजा के रखना, कमाल ये है

(लश्कर=भीड़, फ़ौज)

हज़ार ताक़त हो, सौ दलीलें हों, फिर भी लहजे में आजिज़ी से
अदब की लज़्ज़त, दुआ की ख़ुश्बू, बसा के रखना,कमाल ये है

(आजिज़ी = विनय, नम्रता, बेबसी, लाचारी), (अदब=शिष्टता, सभ्यता)

-मुबारक सिद्दीक़ी

Tuesday, May 7, 2019

तेरे लिए जंग छिड़ गयी है
ख़ुदाया ! अपना ख़्याल रखना
- राजेश रेड्डी

Friday, April 19, 2019

आँखों में आँसुओं को उभरने नहीं दिया

आँखों में आँसुओं को उभरने नहीं दिया
मिट्टी में मोतियों को बिखरने नहीं दिया

जिस राह पर पड़े थे तिरे पाँव के निशाँ
इस राह से किसी को गुज़रने नहीं दिया

चाहा तो चाहतों की हदों से गुज़र गए
नश्शा मोहब्बतों का उतरने नहीं दिया

हर बार है नया तिरे मिलने का ज़ाइक़ा
ऐसा समर किसी भी शजर ने नहीं दिया

(समर = फल), (शजर = पेड़)

ये हिज्र है तो इस का फ़क़त वस्ल है इलाज
हम ने ये ज़ख़्म-ए-वक़्त को भरने नहीं दिया

(हिज्र = जुदाई), (वस्ल = मिलन)

इतने बड़े जहान में जाएगा तू कहाँ
इस इक ख़याल ने मुझे मरने नहीं दिया

साहिल दिखाई दे तो रहा था बहुत क़रीब
कश्ती को रास्ता ही भँवर ने नहीं दिया

(साहिल = किनारा), (कश्ती = नाव)

जितना सकूँ मिला है तिरे साथ राह में
इतना सुकून तो मुझे घर ने नहीं दिया

इस ने हँसी हँसी में मोहब्बत की बात की
मैं ने 'अदीम' उस को मुकरने नहीं दिया

-अदीम हाशमी

Friday, April 12, 2019

कोई पत्थर कोई गुहर क्यूँ है

कोई पत्थर कोई गुहर क्यूँ है
फ़र्क़ लोगों में इस क़दर क्यूँ है

(गुहर = मोती)

तू मिला है तो ये ख़याल आया
ज़िंदगी इतनी मुख़्तसर क्यूँ है

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त)

जब तुझे लौट कर नहीं आना
मुंतज़िर मेरी चश्म-ए-तर क्यूँ है

 (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (भीगी हुई आँखें, नम आँखें)

ये भी कैसा अज़ाब दे डाला
है मोहब्बत तो इस क़दर क्यूँ है

(अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट, संताप)

तू नहीं है तो रोज़-ओ-शब कैसे
शाम क्यूँ आ गई सहर क्यूँ है

क्यूँ रवाना है हर घड़ी दुनिया
ज़िंदगी मुस्तक़िल सफ़र क्यूँ है

(मुस्तक़िल = चिरस्थाई, निरंतर, लगातार)

मैं तो इक मुस्तक़िल मुसाफ़िर हूँ
तू भला मेरा हम-सफ़र क्यूँ है

(मुस्तक़िल = चिरस्थाई, निरंतर, लगातार)

तुझे मिलना नहीं किसी से 'अदीम'
फिर बिछड़ने का तुझ को डर क्यूँ है

-अदीम हाशमी

Monday, February 11, 2019

वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है

वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है
मिरी हस्ती का साया जा रहा है

ख़ुदा का आसरा तुम दे गए थे
ख़ुदा ही आज तक काम आ रहा है

बिखरना और फिर उन गेसुओं का
दो-आलम पर अँधेरा छा रहा है

जवानी आइना ले कर खड़ी है
बहारों को पसीना आ रहा है

कुछ ऐसे आई है बाद-ए-मुआफ़िक़
किनारा दूर हटता जा रहा है

(बाद-ए-मुआफ़िक़ = अनुकूल हवा)

ग़म-ए-फ़र्दा का इस्तिक़बाल करने
ख़याल-ए-अहद-ए-माज़ी आ रहा है

(ग़म-ए-फ़र्दा = आगे आने वाले कल का दुःख), (ख़याल-ए-अहद-ए-माज़ी = भूतकाल के विचार)

वो इतने बे-मुरव्वत तो नहीं थे
कोई क़स्दन उन्हें बहका रहा है

(क़स्दन = जानबूझ कर)

कुछ इस पाकीज़गी से की है तौबा
ख़यालों पर नशा सा छा रहा है

ज़रूरत है कि बढ़ती जा रही है
ज़माना है कि घटता जा रहा है

हुजूम-ए-तिश्नगी की रौशनी में
ज़मीर-ए-मय-कदा थर्रा रहा है

(तिश्नगी = प्यास)

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे कश्तियों को
बड़ी शिद्दत का तूफ़ाँ आ रहा है

कोई पिछले पहर दरिया-किनारे
सितारों की धुनों पर गा रहा है

ज़रा आवाज़ देना ज़िंदगी को
'अदम' इरशाद कुछ फ़रमा रहा है

(इरशाद = आदेश, आज्ञा देना, हुक्म करना, दीक्षा देना, हिदायत करना)

-अब्दुल हमीद अदम

Thursday, January 24, 2019

रदीफ़ "और बस" पर चंद मुख़्तलिफ़ शोअरा के अशआर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ


मैं ने उसी से हाथ मिलाया था और बस 
वो शख़्स जो अज़ल से पराया था और बस

(अज़ल = सृष्टि के आरम्भ, अनादिकाल)

लम्बा सफ़र था आबला-पाई थी धूप थी
मैं था तुम्हारी याद का साया था और बस

(आबला-पाई = छाले भरे पैर)

-अरशद महमूद "अरशद"

मिलना न मिलना एक बहाना है और बस
तुम सच हो बाक़ी जो है फ़साना है और बस

सोए हुए तो जाग ही जाएँगे एक दिन
जो जागते हैं उन को जगाना है और बस

-सलीम "कौसर"

इतनी सी इस जहाँ की हक़ीक़त है और बस 
गुफ़्तार ज़ेर-ए-लब है समाअत है और बस

(गुफ़्तार = बातचीत), (ज़ेर-ए-लब = होंठों ही होंठों में), (समाअत = सुनना, सुनवाई)

इतने से जुर्म पर तो न मुझ को तबाह रख
थोड़ी सी मुझ में तेरी शबाहत है और बस

(शबाहत = एकरूपता, समता)

-हुसैन "सहर"

अब के ये बात ज़ेहन में ठानी है और बस 
हम ने तो अपनी जान बचानी है और बस

नुक़सान तो हमारा है कच्चे गिरेंगे हम
तुम ने तो एक शाख़ हिलानी है और बस

-अज़्बर "सफ़ीर"

बारिश थी और अब्र था दरिया था और बस 
जागी तो मेरे सामने सहरा था और बस

(अब्र =बादल), (सहरा = रेगिस्तान)

आया ही था ख़याल कि फिर धूप ढल गई
बादल तुम्हारी याद का बरसा था और बस

-सीमा "ग़ज़ल"

उम्र भर उस को रही इक सरगिरानी और बस 
वो तो कहिए थी हमारी सख़्त-जानी और बस

(सरगिरानी=चिंताओं और परेशानियों का बंडल)

-'अंजुम' उसमान


Courtesy Balvinder Singh Chhinna ji 

Tuesday, December 6, 2016

उसका ख़याल दिल में उतरता चला गया

उसका ख़याल दिल में उतरता चला गया
मेरे सुख़न में रंग वो भरता चला गया

इक एतिबार था कि जो टूटा नहीं कभी
इक इन्तिज़ार था जो मैं करता चला गया

ठहरा रहा विदाअ़ का लम्ह़ा तमाम उम्र
और वक़्त अपनी रौ में गुज़रता चला गया

जितना छुपाता जाता था मैं अपने आपको
उतना ही आइने में उभरता चला गया

मुझको कहाँ नसीब थी मौत एक बार की
आता रहा वो याद मैं मरता चला गया

यकजा कभी न हो सका मैं अपनी ज़ात में
खुद को समेटने में बिखरता चला गया

- राजेश रेड्डी

Wednesday, November 30, 2016

जोखिमों से लगाव मारे है

जोखिमों से लगाव मारे है
हमको अपना सुभाव मारे है

यूं कमी भी नहीं घरों की हमें
कुछ भटकने का चाव मारे है

तू परेशां है बेख़याली से
और मुझे रखरखाव मारे है

प्यार के हर्फ़ तो हैं ढाई मगर
इनका इक-इक घुमाव मारे है

उनके हक़ में भी हम दुआ मांगें
जिनको मन का रिसाव मारे है

-हस्तीमल हस्ती

Friday, November 18, 2016

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है
जो दर्द है वो रूह की गहराइयों में है

जिस को कभी ख़याल का पैकर न मिल सका
वो अक्स मेरे ज़ेहन की रानाइयों में है

(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख), (अक्स = प्रतिबिम्ब, छाया, चित्र), (रानाई/ रअनाई = बनाव-श्रृंगार)

कल तक तो ज़िंदगी थी तमाशा बनी हुई
और आज ज़िंदगी भी तमाशाइयों में है

है किस लिए ये वुसअत-ए-दामान-ए-इल्तिफ़ात
दिल का सुकून तो इन्ही तन्हाइयों में है

(वुसअत-ए-दामान-ए-इल्तिफ़ात = प्यार/ कृपा का विस्तार)

ये दश्त-ए-आरज़ू है यहाँ एक एक दिल
तुझ को ख़बर भी है तिरे सौदाइयों में है

(दश्त-ए-आरज़ू = तमन्ना/ ख़्वाहिश का जंगल), (सौदाई = पागल, बावला)

तन्हा नहीं है ऐ शब-ए-गिर्यां दिए की लौ
यादों की एक शाम भी परछाइयों में है

(शब-ए-गिर्यां = दुःख/ रोने की रात)

'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर
वो ज़हर पी के देख जो सच्चाइयों में है

(मस्लहत = समझदारी, हित, भलाई)

-गुलनार आफ़रीन

Tuesday, November 8, 2016

एक मुलाक़ात

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल, लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं
ये जान कर तुझे जाने कितना ग़म पहुँचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

किसी की हो के तू इस तरह मेरे घर आई
कि जैसे फिर कभी आए तो घर मिले न मिले
नज़र उठाई, मगर ऐसी बे-यकीनी से
कि जिस तरह कोई पेशे-नज़र मिले न मिले
तू मुस्कुराई, मगर मुस्कुरा के रुक सी गई
कि मुस्कुराने से ग़म की खबर मिले न मिले
रुकी तो ऐसे, कि जैसे तिरी रियाज़त को
अब इस समर से ज़ियादा समर मिले न मिले
गई तो सोग में डूबे क़दम ये कह के गए
सफ़र है शर्त, शरीके-सफ़र मिले न मिले

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल,लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं
ये जान कर तुझे क्या जाने कितना ग़म पहुंचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

-साहिर लुधियानवी


(पेशे-नज़र = नज़र/ आँखों के सामने), (रियाज़त = तपस्या, साधना), (समर = फल, नतीजा), (शरीके-सफ़र = सहयात्री, यात्रा का साथी)

Saturday, November 5, 2016

सिर्फ़ ख़यालों में न रहा कर

सिर्फ़ ख़यालों में न रहा कर
ख़ुद से बाहर भी निकला कर

लब पे नहीं आतीं सब बातें
ख़ामोशी को भी समझा कर

उम्र सँवर जाएगी तेरी
प्यार को अपना आईना कर

जब तू कोई क़लम ख़रीदे
पहले उन का नाम लिखा कर

सोच समझ सब ताक़ पे रख कर
प्यार में बच्चों सा मचला कर

-हस्तीमल 'हस्ती'


sirf ḳhayaalon mein na rahaa kar
khud se baahar bhi niklaa kar

lab pe nahin aatin sab baaten
ḳhaamoshi ko bhi samjhaa kar

umr sanvar jaayegi teri
pyaar ko apnaa aaiina kar

jab tu koi qalam kharide
pahle un kaa naam likhaa kar

soch samajh sab taaq pe rakh kar
pyaar men bachchon saa machlaa kar

-Hastimal Hasti

Sunday, September 25, 2016

दिन इक के बाद एक गुज़रते हुए भी देख

दिन इक के बाद एक गुज़रते हुए भी देख
इक दिन तू अपने आप को मरते हुए भी देख

हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख

हाँ देख बर्फ़ गिरती हुई बाल बाल पर
तपते हुए ख़याल ठिठुरते हुए भी देख

अपनों में रह के किस लिए सहमा हुआ है तू
आ मुझ को दुश्मनों से न डरते हुए भी देख

पैवंद बादलों के लगे देख जा-ब-जा
बगलों को आसमान कतरते हुए भी देख

हैरान मत हो तैरती मछली को देख कर
पानी में रौशनी को उतरते हुए भी देख

उस को ख़बर नहीं है अभी अपने हुस्न की
आईना दे के बनते सँवरते हुए भी देख

देखा न होगा तू ने मगर इंतिज़ार में
चलते हुए समय को ठहरते हुए भी देख

तारीफ़ सुन के दोस्त से 'अल्वी' तू ख़ुश न हो
उस को तेरी बुराइयाँ करते हुए भी देख

-मोहम्मद अल्वी