तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
(निगूँ = नीचे होना, झुकना), (वस्ल = मिलन)
अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए
ओ कल्प-वृक्ष की सोन-जूही, ओ अमलतास की अमर कली,
धरती के आताप से जलते मन पर छायी निर्मल बदली,
मैं तुमको मधु-सद-गंध युक्त, संसार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.
तुम कल्प-वृक्ष का फूल और मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य, मैं नहीं स्वयं अपने लायक
तुम नहीं अधूरी ग़ज़ल शुभे, तुम शाम गान सी पावन हो,
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी, बिजुरी सी तुम मन भावन हो
इसलिए व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाउँगा
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा
तुम जिस शैया पर शयन करो, वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आँगन की हो मौल-श्री, वह आँगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ, वे अधर नहीं गंगातट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो, वह व्यक्ति नहीं वंशी-वट हो
पर मैं वट जैसा सघन छॉंह, विस्तार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.
मैं तुमको चाँद सितारों का सौंपू उपहार भला कैसे,
मैं यायावर बंजारा साधू, दूं सुर श्रंगार भला कैसे
मैं जीवन के प्रश्नो से नाता तोड़ तुम्हारे साथ शुभे,
बारूदी बिछी धरती पर कर लूं दो पल प्यार भला कैसे
इसलिए विवश हर आंसू को सत्कार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.
- डॉ. कुमार विश्वास
Thursday, September 26, 2019
हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं
-दाग़ देहलवी