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Monday, June 3, 2019

बुझ गया दिल तो ख़बर कुछ भी नहीं

बुझ गया दिल तो ख़बर कुछ भी नहीं
अक्स-ए-आईने नज़र कुछ भी नहीं

(अक्स-ए-आईने = आईने का प्रतिबिम्ब)

शब की दीवार गिरी तो देखा
नोक-ए-नश्तर है सहर कुछ भी नहीं

(शब = रात), (सहर = सुबह), (नश्तर= शल्य क्रिया/ चीर-फाड़ करने वाला छोटा चाकू), (नोक-ए-नश्तर = चाकू की नोक)

जब भी एहसास का सूरज डूबे
ख़ाक का ढेर बशर कुछ भी नहीं

(बशर = इंसान)

एक पल ऐसा कि दुनिया बदले
यूँ तो सदियों का सफ़र कुछ भी नहीं

हर्फ़ को बर्ग-ए-नवा देता हूँ
यूँ मिरे पास हुनर कुछ भी नहीं

(हर्फ़ = अक्षर), (नवा = गीत, आवाज़, शब्द), (बर्ग = पत्ती), (बर्ग-ए-नवा = आवाज़ की पत्ती, Leaf of voice)

-खलील तनवीर

Sunday, May 12, 2019

मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी

मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी
कहीं कहीं पे छुपे थे मगर सवेरे भी

निकल पड़े थे तो फिर राह में ठहरते क्या
यूँ आस-पास कई पेड़ थे घनेरे भी

ये शहर-ए-सब्ज़ है लेकिन बहुत उदास हुए
ग़मों की धूप में झुलसे हुए थे डेरे भी

(शहर-ए-सब्ज़ = जीवंत/ ज़िंदादिल शहर)

हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं
सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी

(हुदूद-ए-शहर = शहर की हदों)

समुंदरों के ग़ज़ब को गले लगाए हुए
कटे-फटे थे बहुत दूर तक जज़ीरे भी

(जज़ीरे = द्वीप)

-खलील तनवीर

Monday, May 6, 2019

इश्क़ की इक किताब जैसे हैं

इश्क़ की इक किताब जैसे हैं
हम महकते गुलाब जैसे हैं।

हमको रखना छुपा के आंखों में
हम सवेरे के ख़्वाब जैसे हैं।

मुश्किलों में भी काम आएंगे
तजुर्बों की किताब जैसे हैं।

ना तो पैकर कोई गुमाँ भी नहीं
हम तो बस इक सराब जैसे हैं।

(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख), (सराब = मृगतृष्णा, मरीचिका)

अब सजा दो हमें क़रीने से
एक ख़स्ता किताब जैसे हैं।

हमको भर लो निगाह में अपनी
डूबते आफ़ताब जैसे हैं।

(आफ़ताब = सूरज)

कब हुए हैं किसी भी आंगन के
एक उड़ते सहाब जैसे हैं।

(सहाब = बादल)

- विकास वाहिद ०६-०५-१९

Friday, April 5, 2019

इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
-नरेश कुमार शाद

(दिल-ए-कम-नज़र = संकीर्ण दृष्टि वाला दिल), (शाम-ए-अलम = दुःख की शाम)

Tuesday, February 26, 2019

मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो
-अमीर मीनाई

(शाम-ए-वस्ल = मिलन की शाम), (सहर  = सुबह, सवेरा)

Monday, January 21, 2019

जैसे भी इशारात हों, जैसी भी नज़र हो

जैसे भी इशारात हों, जैसी भी नज़र हो
पहली सी मुहब्बत न सही, कुछ तो मगर हो

साग़र हो, सुराही हो, मय-ए-ज़ुद-असर हो
जीना कोई मुश्किल नहीं, सामान अगर हो

(मय-ए-ज़ूद-असर = जल्दी असर करने वाली शराब)

चौखट हो के दहलीज़, दरीचा हो के दर हो
जैसा भी हो, कहने के लिए कोई तो घर हो

हम जिस की तजल्ली के हैं मुश्ताक़ अज़ल से
वो काफ़िर-ए-आफ़ाक़ ख़ुदा जाने किधर हो?

(तजल्ली = प्रकाश, नूर), (मुश्ताक़ = उत्सुक), ((अज़ल = सृष्टि के आरम्भ, अनादिकाल), (काफ़िर-ए-आफ़ाक़ = दुनिया का माशूक़)

हम जान भी दे दें तो कोई देखे न देखे
वो होंट हिला दें तो ज़माने को ख़बर हो

तन्हाई में रह कर भी मैं तनहा नहीं रहता
होता है कोई साथ, सफ़र हो के हज़र हो

(हज़र = घर में रहना, सफ़र का उल्टा)

सब की ये दुआ है कि मैं इस रोग से छूटूँ
मेरी ये दुआ है के दुआ में न असर हो

अब जाने दे, जाने दे मुझे, ऐ शब-ए-हिज्राँ
शब भर तो रुके वोह, जिसे उम्मीद-ए-सहर हो

(शब-ए-हिज्राँ = जुदाई की रात), (उम्मीद-ए-सहर = सुबह होने की उम्मीद)

इस बज़्म-ए-अदीबाँ में भला 'क़ैस' का क्या काम
उस रिन्द-ए-ख़राबात में कोई तो हुनर हो

(बज़्म-ए-आदीबाँ = कलाकारों की महफ़िल), (रिन्द-ए-ख़राबात = मैख़ाने में ही रहने वाला शराबी)

-राजकुमार क़ैस

Monday, January 29, 2018

ज़िंदगी की हर कहानी बेअसर हो जाएगी

ज़िंदगी की हर कहानी बेअसर हो जाएगी
हम ना होंगे तो ये दुनिया दर-ब-दर हो जाएगी

पांव पत्थर करके छोड़ेगी अगर रुक जाइये
चलते रहिए तो ज़मीं भी हमसफ़र हो जाएगी

तुमने ख़ुद ही सर चढ़ाई थी सो अब चक्खो मज़ा
मैं न कहता था के दुनिया दर्द-ए-सर हो जाएगी

तल्खियां भी लाज़िमी हैं ज़िन्दगी के वास्ते
इतना मीठा बनकर मत रहिए शकर हो जाएगी

जुगनुओं को साथ लेकर रात रौशन कीजिए
रास्ता सूरज का देखा तो सहर हो जाएगी

(सहर = सुबह)

- राहत इंदौरी

Monday, February 6, 2017

मंज़िलों की हर कहानी बे-असर हो जायेगी

मंज़िलों की हर कहानी बे-असर हो जायेगी
हम न होंगे तो ये दुनिया दर-ब-दर हो जायेगी

ज़िन्दगी भी काश मेरे साथ रहती सारी उम्र
खैर अब जैसी भी होनी है बसर हो जायेगी

जुगनुओं को साथ लेकर रात रौशन कीजिये
रास्ता सूरज का देखा तो सहर हो जायेगी

पाँव पत्थर कर के छोड़ेगी अगर रुक जाइये
चलते रहिये तो ज़मीं भी हमसफ़र हो जायेगी

तुमने खुद ही सर चढ़ाई थी सो अब चक्खो मज़ा
मै न कहता था दुनिया दर्द-ऐ-सर हो जायेगी

-राहत इन्दौरी

Tuesday, June 28, 2016

ज़माने में सबसे जुदा देखना चाहता है

ज़माने में सबसे जुदा देखना चाहता है 
अजीब है वो मुझमे ख़ुदा देखना चाहता है

मेरे हाल पर अब भी उसको यकीं ही नही है
जो चाक हो चुकी वो रिदा देखना चाहता है 

(चाक रिदा = फ़टी चादर)

यूँ मुझको ज़हर दे के यादों का अपनी तमाम शब
सहर को मुझे जिन्दा देखना चाहता है 

(शब = रात), (सहर = सवेरा, सुबह)

वो वाकिफ़ है खूब अपने ही अंजाम से यूँ
मगर इश्क़ फिर इब्तिदा देखना चाहता है

(इब्तिदा = आरम्भ, प्रारम्भ, शुरुआत)

क्यूँ है रस्म ये के दिल पे रख कर पत्थर 
पिता बेटियों की विदा देखना चाहता है 

ग़मों से मेरा भर के दामन उम्र भर के लिये 
ज़माना मेरी अब अदा देखना चाहता है 

नवाज़ा था जिस शख़्स को हर नेमत से ख़ुदा ने 
वो ही क्यूँ मुझे गदा देखना चाहता है 

(गदा = भिखारी)

ये इम्तेहान तेरे बेसबब भी नहीं हैं 'विकास'
वो तुझमें ही कुछ अलहदा देखना चाहता है 

(अलहदा = अलग, भिन्न)

- विकास वाहिद

Wednesday, February 24, 2016

खुलती है मेरी आँखें हमेशा ही देर से
इक धूप आ के लौट गई है मुंडेर से
-आलम खुर्शीद

Sunday, April 19, 2015

लाख आफ़ताब पास से होकर गुज़र गए
हम बैठे इंतज़ार-ए-सहर देखते रहे
-जिगर मुरादाबादी

(आफ़ताब =  सूरज), (इंतज़ार-ए-सहर = सुबह का इंतज़ार)

 

Monday, October 20, 2014

तुम आए हो न शब-ए-इंतज़ार गुज़री है

तुम आए हो न शब-ए-इंतज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है

(शब-ए-इंतज़ार = इंतज़ार की रात), (सहर = सुबह)

जुनूँ में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है
अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है

(ब-कार = काम करते हुए)

हुई है हज़रते-नासेह से गुफ़्तगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कू-ए-यार गुज़री है

(हज़रते-नासेह = उपदेशक महोदय), (शब = रात), (सरे-कू-ए-यार = यार की गली में)

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है

(ग़ारते-गुलचीं = फूल चुनने वाले की लाई हुई तबाही), (क़फ़स = पिंजरा), (सबा = बयार, हवा)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

नूरजहाँ/ Noorjahan



अमानत अली/ Amanat Ali



Dr. Radhika Chopda/ डा राधिका चोपड़ा 

Saturday, August 16, 2014

सहर को सहर, रात को रात लिख
सुखनवर हमेशा सही बात लिख।

(सहर = सुबह)

ज़रूरी नहीं झूठ का हो बखान
नज़र में हैं जैसे वो हालात लिख।

अगर धूप है तो लिखी जाय धूप
नहीं तो तू मौसम को बरसात लिख।

अधूरी रही या मुकम्मल हुई
थी जैसी भी वैसी मुलाकात लिख।

ये अच्छा है चलती रहे लेखनी
मगर बेवजह मत खुरापात लिख।

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Sunday, December 15, 2013

तेरे आने की जब ख़बर महके
तेरी ख़ुशबू से सारा घर महके

शाम महके तेरे तसव्वुर से
शाम के बाद फिर सहर महके

 (तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद), (सहर = सुबह)

रात भर सोचता रहा तुझको
ज़हन-ओ-दिल मेरे रात भर महके

(ज़हन-ओ-दिल = दिमाग़ और दिल)

याद आए तो दिल मुनव्वर हो
दीद हो जाए तो नज़र महके

 (मुनव्वर = प्रकाशमान, प्रज्ज्वलित), (दीद= दर्शन, दीदार)

वो घड़ी दो घड़ी जहाँ बैठे
वो ज़मीं महके वो शजर महके

(शजर = पेड़)

-नवाज़ देवबंदी


Saturday, December 7, 2013

हर इक आग़ाज़ का अंजाम तय है
सहर कोई हो उसकी शाम तय है

हिरन सोने का चाहेगी जो सीता
बिछड़ जाएँगे उस से राम तय है
-राजेश रेड्डी

Saturday, July 13, 2013

मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली
तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं

चार दिन की ये रफ़ाक़त जो रफ़ाक़त भी नहीं
उम्र भर के लिए आज़ार हुई जाती है
ज़िन्दगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर सांस गिरांबार हुई जाती है

[(रफ़ाक़त = मित्रता, मेलजोल), (आज़ार = दुःख, कष्ट), (गिरांबार = बोझ)]

मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख़्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आती है
कभी इख़लास की मूरत कभी हरजाई है

[(शबिस्तान = रात को रहने का स्थान, शयनगार), (पैकर = चेहरा, मुख), (इख़लास = दोस्ती, मित्रता)]

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं
तूने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओ का इज़हार करूं या न करूं

तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज़ की क़सम
तेरी पलकें मेरी आंखों पे झुकी रहती हैं

(आरिज़ = गाल)

तेरे हाथों की हरारत तेरे सांसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूंढती रहती हैं तख़ईल की बाहें तुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तनहाई में

(पहनाई = विस्तार, विशालता), (तख़ईल = ख्याल, सोच)

तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर
ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो

(अल्ताफ़-ओ-करम = कृपा और मेहरबानियाँ)

कौन जाने मेरी इम्रोज़ का फ़र्दा क्या है
क़ुबर्तें बढ़ के पशेमान भी हो जाती है
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें
देखते देखते अंजान भी हो जाती है

[(इम्रोज़ = आज), (फ़र्दा = आने वाला दिन), (क़ुबर्तें = नजदीकियां), (पशेमान = शर्मिंदा)]

मेरी दरमांदा जवानी की तमाओं के
मुज़महिल ख़्वाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलिस्ता भी है, वीराने भी
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझको

[(दरमांदा = थका हुआ, शिथिल), (तमाओं = इच्छाओं), (मुज़महिल = शिथिल, थक हुआ), (ताबीर = परिणाम, फल)]

-साहिर लुधियानवी

Thursday, June 20, 2013

कहीं और चल ज़िन्दगी

हो गई है अधूरी ग़ज़ल ज़िन्दगी,
काफ़िया अब तो अपना बदल ज़िन्दगी।

लड़खड़ाई, गिरी, गिर के फिर उठ गई,
डगमगाई बहुत अब सम्भल ज़िन्दगी।

ज़ुल्मत-ए-शब से लड़ तू सहर के लिए,
स्याह घेरों से बाहर निकल ज़िन्दगी।

ख्वाब खण्डहर हुए तो नई शक्ल दे,
कर दे अब कुछ तो रददो-बदल ज़िन्दगी।

जब डराने लगें तुझको खामोशियाँ,
तोड़ कर मौन शब्दों में ढल ज़िन्दगी।

छोड़ दे ये शहर गर न माफ़िक तुझे,
चल यहाँ से कहीं और चल ज़िन्दगी।

आज नाकाम है "आरसी" क्या हुआ,
कल तेरी होगी फिर से सफल ज़िन्दगी।

-आर० सी० शर्मा “आरसी”

Sunday, June 9, 2013

उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो

ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो

दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर
नीम की पत्तियों को चबाया करो

शाम के बाद जब तुम सहर देख लो
कुछ फ़क़ीरों को खाना खिलाया करो

अपने सीने में दो गज़ ज़मीं बाँधकर
आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो

चाँद सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ
ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो
-राहत इन्दौरी

Tuesday, April 9, 2013

हम कुश्तगाने-ख़्वाब गिराँगोश ही रहे,
सूरज सरों पे वक़्ते-सहर बोलता रहा ।

[(कुश्तगाने-ख़्वाब = नींद के मारे हुए/ सपनों की दुनिया में खोए हुए), (गिराँगोश = बहरे), (वक़्ते-सहर = सुबह के समय)]

उस राहे-जज़्ब से भी गुज़रना पड़ा 'ज़हीर',
जिस राह में ख़िरद का क़दम डोलता रहा।

(राहे-जज़्ब = आकर्षण की राह), (ख़िरद = बुद्धि)


-ज़हीर काश्मीरी

Monday, April 1, 2013

सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके,
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह।

या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे,
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह।
-क़तील शिफाई