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Saturday, March 27, 2021

समंदर हो ज़मीं हो इसको दफ़नाया नहीं जाता।
मियां हरगिज़ कभी भी सच को झुठलाया नहीं जाता।।

अकेले ही पहुंचना है हमें उस आख़री मंज़िल
किसी का चाह कर भी साथ में साया नहीं जाता।

पहेली सा बुना है ज़िन्दगी ने हर हसीं रिश्ता
उलझ जाए सिरा कोई तो सुलझाया नहीं जाता।

हमारे ख़ून में शामिल है हरदम ये रविश "वाहिद"
पनाहों में कोई आए तो ठुकराया नहीं जाता।

(रविश =  गति, रंग-ढंग, बाग़ की क्यारियों के बीच का छोटा मार्ग)

- विकास वाहिद
26/03/21

Sunday, May 10, 2020

मैं ने अपना हक़ माँगा था वो नाहक़ ही रूठ गया

मैं ने अपना हक़ माँगा था वो नाहक़ ही रूठ गया
बस इतनी सी बात हुई थी साथ हमारा छूट गया

वो मेरा है आख़िर इक दिन मुझ को मिल ही जाएगा
मेरे मन का एक भरम था कब तक रहता टूट गया

दुनिया भर की शान-ओ-शौकत ज्यूँ की त्यूँ ही धरी रही
मेरे बै-रागी मन में जब सच आया तो झूट गया

क्या जाने ये आँख खुली या फिर से कोई भरम हुआ
अब के ऐसे उचटा दिल कुछ छोड़ा और कुछ छूट गया

लड़ते लड़ते आख़िर इक दिन पंछी की ही जीत हुई
प्राण पखेरू ने तन छोड़ा ख़ाली पिंजरा छूट गया

-दीप्ति मिश्रा

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है
जान-बूझ कर धोका खाना कितना अच्छा लगता है

ईंट और पत्थर मिट्टी गारे के मज़बूत मकानों में
पक्की दीवारों के पीछे हर घर कच्चा लगता है

आप बनाता है पहले फिर अपने आप मिटाता है
दुनिया का ख़ालिक़ हम को इक ज़िद्दी बच्चा लगता है

(ख़ालिक़ = बनानेवाला, सृष्टिकर्ता, ईश्वर)

इस ने सारी क़स्में तोड़ें सारे वा'दे झूटे थे
फिर भी हम को उस का होना अब भी अच्छा लगता है

उसे यक़ीं है बे-ईमानी बिन वो बाज़ी जीतेगा
अच्छा इंसाँ है पर अभी खिलाड़ी कच्चा लगता है

-दीप्ति मिश्रा

Thursday, April 30, 2020

वो नहीं मेरा मगर उस से मोहब्बत है तो है

वो नहीं मेरा मगर उस से मोहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों रिवाजों से बग़ावत है तो है

सच को मैं ने सच कहा जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाक़त है तो है

कब कहा मैं ने कि वो मिल जाए मुझ को मैं उसे
ग़ैर ना हो जाए वो बस इतनी हसरत है तो है

जल गया परवाना गर तो क्या ख़ता है शम्अ' की
रात भर जलना जलाना उस की क़िस्मत है तो है

दोस्त बिन कर दुश्मनों सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है

दूर थे और दूर हैं हर दम ज़मीन-ओ-आसमाँ
दूरियों के बा'द भी दोनों में क़ुर्बत है तो है

(क़ुर्बत = नज़दीकी)

-दीप्ति मिश्रा

Tuesday, April 28, 2020

मुझ को ख़ुद तक जाना था

मुझ को ख़ुद तक जाना था
इश्क़ तो एक बहाना था

रब तक आना जाना था
सच से जब याराना था

हम न समझ पाए वरना
दुःख भी एक तराना था

हाय वहाँ भी बच निकले
हमको जहाँ दिख जाना था

पँख बिना भी उड़ते थे
वो भी एक ज़माना था

-हस्तीमल 'हस्ती'

Thursday, April 23, 2020

धोखा है इक फ़रेब है मंज़िल का हर ख़याल
सच पूछिए तो सारा सफ़र वापसी का है
-राजेश रेड्डी

Wednesday, April 15, 2020

जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये

जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये
तकरीर ही करनी हो कहीं और जाइये

(तक़रीर = वार्तालाप, बातचीत, भाषण, वक्तव्य, बयान, वाद-विवाद, हुज्जत)

याँ महफ़िले-सुखन को सुखनवर की है तलाश
गर शौक़ आपको भी है तशरीफ़ लाइये।

(सुख़नवर = कवि, शायर)

फूलों की ज़िन्दगी तो फ़क़त चार दिन की है
काँटे चलेंगे साथ इन्हे आज़माइये।

क‍उओं की गवाही पे हुई हंस को फाँसी
जम्हूरियत है मुल्क में ताली बजाइये।

(जम्हूरियत = गणतंत्र, जनतंत्र, प्रजातंत्र)

रुतबे को उनके देख के कुछ सीखिये 'अमित'
सच का रिवाज ख़त्म है अब मान जाइये।

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’ 

ज़िन्दगी इक तलाश है, क्या है?

ज़िन्दगी इक तलाश है, क्या है?
दर्द इसका लिबास है क्या है?

फिर हवा ज़हर पी के आई क्या,
सारा आलम उदास है, क्या है?

एक सच के हज़ार चेहरे हैं,
अपना-अपना क़यास है, क्या है

(क़यास = अन्दाज़ा)

जबकि दिल ही मुकाम है रब का,
इक जमीं फिर भी ख़ास है, क्या है

राम-ओ-रहमान की हिफ़ाज़त में,
आदमी! बदहवास है, क्या है?

सुधर तो सकती है दुनियाँ, लेकिन
हाल, माज़ी का दास है, क्या है?

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)

मिटा रहा है ज़माना इसे जाने कब से,
इक बला है कि प्यास है, क्या है?

गौर करता हूँ तो आती है हँसी,
ये जो सब आस पास है क्या है?

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Sunday, February 23, 2020

अंतस में जिसके रहा सच्चाई का वास
चेहरे पर उसके रहा हरदम एक प्रकाश
-हस्तीमल हस्ती

Saturday, August 31, 2019

रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए

रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए
हक़ बात लब पे आई तो हम बे-हुनर हुए

कल तक जहाँ में जिन को कोई पूछता न था
इस शहर-ए-बे-चराग़ में वो मो'तबर हुए

(मो'तबर =विश्वसनीय, भरोसेमंद)

बढ़ने लगी हैं और ज़मानों की दूरियाँ
यूँ फ़ासले तो आज बहुत मुख़्तसर हुए

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त)

दिल के मकाँ से ख़ौफ़ के साए न छट सके
रस्ते तो दूर दूर तलक बे-ख़तर हुए

(बे-ख़तर = बिना ख़तरे के, सुरक्षित)

अब के सफ़र में दर्द के पहलू अजीब हैं
जो लोग हम-ख़याल न थे हम-सफ़र हुए

बदला जो रंग वक़्त ने मंज़र बदल गए
आहन-मिसाल लोग भी ज़ेर-ओ-ज़बर हुए

(आहन-मिसाल = लोहे की तरह), (ज़ेर-ओ-ज़बर = ज़माने का उलट-फेर, संसार की ऊँच-नीच)

-खलील तनवीर

Tuesday, August 27, 2019

कर मुहब्बत के इसमें बुरा कुछ नहीं

कर मुहब्बत के इसमें बुरा कुछ नहीं
जुर्म कर ले है इसकी सज़ा कुछ नहीं।

उम्र भर की वो बैठा है फ़िक्रें लिए
कल का जिस आदमी को पता कुछ नहीं।

क़द्र अश्क़ों की कीजे के मोती हैं ये
इनसे बढ़ कर जहां में गरां कुछ नहीं।

(गरां = महंगा / कीमती)

सानिहा अब ये है देख कर ज़ुल्म भी
इन रगों में मगर खौलता कुछ नहीं।

(सानिहा = दुर्भाग्य/ विडम्बना)

बोलते हो अगर सच तो ये सोच लो
आज के दौर में है जज़ा कुछ नहीं।

(जज़ा = ईनाम / reward)

ज़िन्दगी जैसे बोझिल हैं अख़बार भी
रोज़ पढ़ते हैं लेकिन नया कुछ नहीं।

मैं सज़ा में बराबर का हक़दार हूँ
ज़ुल्म देखा है लेकिन कहा कुछ नहीं।

जानते सब हैं सब छूटना है यहीं
जीते जी तो मगर छूटता कुछ नहीं।

ज़िन्दगी उस मकां पे है "वाहिद' के अब
हसरतें कुछ नहीं मुद्दआ कुछ नहीं।

(मुद्दआ = matter / issue)

- विकास "वाहिद" २३ अगस्त २०१९

Sunday, July 28, 2019

कितना अच्छा लगता है, इक आम सा चेहरा भी
सिर्फ़ मोहब्बत-भरा तबस्सुम, लब पर लाने से

गए दिनों में रोना भी तो, कितना सच्चा था
दिल हल्का हो जाता था, जब अश्क बहाने से

- हसन अकबर कमाल

(तबस्सुम =  मुस्कराहट), (अश्क = आँसू)

Wednesday, June 19, 2019

बस नफ़ा ही नफ़ा है ख़सारा नहीं

बस नफ़ा ही नफ़ा है ख़सारा नहीं
इश्क़ के खेल में कोई हारा नहीं।

(ख़सारा = हानि, घाटा, नुक्सान)

दिल पे क़ायम है तेरी हुकूमत अभी
हमने यादों का परचम उतारा नहीं।

कौन उतरा है उस पार अब तक यहाँ
इश्क़ के इस भंवर में किनारा नहीं।

मुंतज़िर हम रहे कोई आवाज़ दे
हमको लेकिन किसी ने पुकारा नहीं।

 (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

फूल थे ख़ार समझे गए हम सदा
बागबां ने भी हमको दुलारा नहीं।

कौन रखता यूं आँखों में काजल मेरी
मैं किसी आँख का भी तो तारा नहीं।

फिर भले सर कटे सच की ख़ातिर तो क्या
पर मुकरना तो मुझको गवारा नहीं।

- विकास वाहिद
१८/०६/२०१९

Saturday, June 1, 2019

मत पूछो के कितने पहुँचे

मत पूछो के कितने पहुँचे
पहुँचे जैसे तैसे पहुँचे

उस से छुप कर मिलना था
मुखबिर मुझ से पहले पहुँचे

पहले बाद में जा पहुँचे थे
बाद में जाकर पहले पहुँचे

झूठ गवाही माँग रहा था
सबसे पहले सच्चे पहुँचे

रस्ते में क्या ज़ुल्म हुआ है
जो भी पहुँचे रोते पहुँचे

मेरे साथ तो बस इक दो थे
जाने बाकी कैसे पहुँचे

-ज़हरा शाह


مت پوچھو کہ کتنے پہنچے
پہنچے جیسے تیسے پہنچے

اس سے چھپ کر ملنا تھا پر
مخبر مجھ سے پہلے پہنچے

پہلے بعد میں جا پہنچے تھے
بعد میں جا کر پہلے پہنچے

جھوٹ گواہی مانگ رہا تھا
سب سے پہلے سچے پہنچے

رستے میں کیا ظلم ہوا ہے
جو بھی پہنچے روتے پہنچے

میرے ساتھ تو بس اک دو تھے
جانے باقی کیسے پہنچے

زہرا شاہ

Mat poocho ke kitne pohanche
Pohanche jaise tese pohanche

Us se chup kar milna tha
Mukhbar mujh se pehle pohanche

Pehle baad mein ja pohanche the
Baad mein ja kar pehle pohanche

Jhoot gawahi maang raha tha
Sab se pehle sache pohanche

Raste mein kya zulm hua hai
Jo bhi pohanche rote pohanche

Mere sath tou bss ik do the
Jaane baki kaise pohanche

-Zahra shah

Saturday, May 18, 2019

ये सपने तो बिल्कुल सच्चे लगते हैं
इन सपनों को सच्चा कर के देखा जाए

घर से निकल कर जाता हूँ मैं रोज़ कहाँ
इक दिन अपना पीछा कर के देखा जाए

-भारत भूषण पन्त

Wednesday, May 15, 2019

ढूँढते हैं आप क्या सच्ची ख़बर
मसअ'ले कुछ और हैं अख़बार के
- राजेश रेड्डी

Sunday, May 12, 2019

ज़हर मीठा हो तो पीने में मज़ा आता है
बात सच कहिए मगर यूँ कि हक़ीक़त न लगे
-फ़ुज़ैल जाफ़री

Sunday, April 7, 2019

इक नया अंदाज़ दे शायद हमें

इक नया अंदाज़ दे शायद हमें
ज़िन्दगी आवाज़ दे शायद हमें।

सच को सच कहते रहे हम उम्र भर
अब कोई एज़ाज़ दे शायद हमें।

(एज़ाज़ = इज़्ज़त/प्रतिष्ठा)

अब तलक तो रूठ कर बैठी है पर
ज़िन्दगी परवाज़ दे शायद हमें।

(परवाज़ = उड़ान)

लफ़्ज़ कम हैं लबकुशाई के लिए
अब ग़ज़ल अल्फ़ाज़ दे शायद हमें।

(लबकुशा = बात करना)

हम खड़े हैं मोड़ पर उम्मीद से
फिर कोई आवाज़ दे शायद हमें।

- विकास वाहिद।। ०५-०४-१९

Saturday, March 2, 2019

इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह

इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह
ख़ुद बनाता है जहाँ में आदमी अपनी जगह

कह तो सकता हूँ मगर मजबूर कर सकता नहीं
इख़्तियार अपनी जगह है बेबसी अपनी जगह

(इख़्तियार = अधिकार, काबू, प्रभुत्व)

कुछ न कुछ सच्चाई होती है निहाँ हर बात में
कहने वाले ठीक कहते हैं सभी अपनी जगह

(निहाँ = छुपी हुई)

सिर्फ़ उस के होंट काग़ज़ पर बना देता हूँ मैं
ख़ुद बना लेती है होंटों पर हँसी अपनी जगह

दोस्त कहता हूँ तुम्हें शाएर नहीं कहता 'शुऊर'
दोस्ती अपनी जगह है शाएरी अपनी जगह

-अनवर शुऊर

Thursday, February 21, 2019

तुम मुझको कब तक रोकोगे

मुठ्ठी में कुछ सपने लेकर, भरकर जेबों में आशाएं
दिल में है अरमान यही, कुछ कर जाएं, कुछ कर जाएं
सूरज-सा तेज नहीं मुझमें, दीपक-सा जलता देखोगे
अपनी हद रौशन करने से, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोकोगे

मैं उस माटी का वृक्ष नहीं, जिसको नदियों ने सींचा है
बंजर माटी में पलकर मैंने, मृत्यु से जीवन खींचा है
मैं पत्थर पर लिखी इबारत हूँ, शीशे से कब तक तोड़ोगे
मिटने वाला मैं नाम नहीं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

इस जग में जितने ज़ुल्म नहीं, उतने सहने की ताकत है
तानों  के भी शोर में रहकर सच कहने की आदत है
मैं सागर से भी गहरा हूँ, तुम कितने कंकड़ फेंकोगे
चुन-चुन कर आगे बढूँगा मैं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

झुक-झुककर सीधा खड़ा हुआ, अब फिर झुकने का शौक नहीं
अपने ही हाथों रचा स्वयं, तुमसे मिटने का खौफ़ नहीं
तुम हालातों की भट्टी में, जब-जब भी मुझको झोंकोगे
तब तपकर सोना बनूंगा मैं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

-नामालूम