Thursday, September 27, 2012

अगर आदमी ख़ुद से हारा न होता,
ख़ुदा को किसी ने पुकारा न होता

कहां आसमां पर ख़ुदा बैठ जाता,
जो हम ने ज़मीं पर उतारा न होता

बदलता नहीं वक़्त यह रंग अपने,
किसी आदमी का गुज़ारा न होता

नहीं ख़्वाब कोई हक़ीक़त में ढ़लता,
जो दस्ते-जुनूं ने सँवारा न होता

बुझानी अगर आग आसान होती,
किसी राख में फिर अँगारा न होता

कहीं पर भी होती अगर एक मंज़िल,
तो गर्दिश में कोई सितारा न होता

ये सारे का सारा जहां अपना होता,
अगर यह हमारा तुम्हारा न होता.

-मधुभूषण शर्मा 'मधुर'

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