Thursday, November 15, 2012

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है!

कि ज़िंदगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में,
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी।
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है,
तेरी नज़र की शुआयों में खो भी सकती थी।

 [(शादाब = हरी-भरी), (तीरगी = अंधेरा, अंधकार), (ज़ीस्त = जीवन, ज़िंदगी), (शुआअ = सूर्य की किरण, रश्मि)]

अजब ना था कि मैं बेगाना-ऐ-अलम रहकर,
तेरे जमाल की रानाइयों में खो रहता।
तेरा गुदाज़ बदन, तेरी नीमबाज़ आंखें,
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता।

[(बेगाना-ऐ-अलम = दुखों से अपरिचित), (जमाल = सौंदर्य), (रानाई/ रअनाई = बनाव-श्रृंगार), (गुदाज़ = मृदुल, मांसल), (नीमबाज़ = अधखुली), (महव = निमग्न, तल्लीन)]

पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने की,
तेरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता।
हयात चीखती फिरती बरहना-सर और मैं,
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साए में छुप के जी लेता।

[(तल्खियां = कटुताएं), (हलावत = माधुर्य, रस), (हयात = जीवन), (बरहना-सर = नंगे सिर)]

मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है,
कि तू नहीं, तेरा ग़म ,तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं।

[(आलम = स्थिति), (जुस्तजू = तलाश, खोज), (आरज़ू = इच्छा)]

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले,
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों से।
मुहीब साए मेरी सिम्त बढ़ते आते हैं,
हयात-ओ-मौत के पुरहौल खारज़ारों से।

[(मुहीब = भयानक), (सिम्त = ओर, तरफ), (हयात-ओ-मौत = जीवन और मृत्यु), (पुरहौल खारज़ारों से = भयावह कंटीले जंगलों से)]

न कोई जादा, न मंज़िल, न रौशनी का सुराग़,
भटक रही है ख़लाओं में ज़िंदगी मेरी।
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊंगा कभी खो कर,
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर यूंही,
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है!

[(जादा = पगडंडी, मार्ग), (ख़लाओं में = शून्य में), (हमनफ़स = साथी, मित्र, सहचर)]


-साहिर लुधियानवी



No comments:

Post a Comment