Saturday, June 15, 2013

घर की बुनियादें, दीवारें, बामों-दर थे बाबूजी,
सबको बाँधे रखने वाला, ख़ास हुनर थे बाबूजी।

तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का कोई न था,
अच्छे-ख़ासे, ऊँचे-पूरे, क़द्दावर थे बाबूजी।

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
अम्माजी की सारी सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी।

भीतर से ख़ालिस जज़्बाती, और ऊपर से ठेठ-पिता,
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा, इक तेवर थे बाबूजी।

कभी बड़ा-सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन,
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी।
-आलोक श्रीवास्तव

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