Thursday, June 6, 2013

असर बुजुर्गों की नेमतों का, हमारे अंदर से झांकता है,
पुरानी नदियों का मीठा पानी, नए समंदर से झांकता है।

न जिस्‍म कोई, न दिल न आंखें, मगर ये जादूगरी तो देखो,
हर एक शै में धड़क रहा है, हर एक मंज़र से झांकता है।

लबों पे ख़ामोशियों का पहरा, नज़र परेशां उदास चेहरा,
तुम्‍हारे दिल का हर एक जज़्‍बा, तुम्‍हारे तेवर से झांकता है।

गले में मां ने पहन रखे हैं, महीन धागे में चंद मोती,
हमारी गर्दिश का हर सितारा, उस एक ज़ेवर से झांकता है।

थके पिता का उदास चेहरा, उभर रहा है यूं मेरे दिल में,
कि प्‍यासे बादल का अक्‍स जैसे, किसी सरोवर से झांकता है।

चहक रहे हैं चमन में पंछी, दरख्‍़त अंगड़ाई ले रहे हैं,
बदल रहा है दुखों का मौसम, बसंत पतझर से झांकता है।
आलोक श्रीवास्तव

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