Sunday, September 30, 2012

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूं जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे

मेहमान बनके आए किसी रोज़ अगर वो शख्स़
उस रोज़ बिन सजाए मेरा घर सजा लगे

मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बद्दुआ लगे

(वस्ल=मिलन; रक़ीब=प्रतिद्वन्दी)

वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे

(क़हत=अकाल,कमी; आश्ना=मित्र,परिचित)

तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा ‘क़तील’
मुझको सताए कोई तो उस का बुरा लगे

(तर्क-ए-वफ़ा=प्रेम का त्याग)

-क़तील शिफाई

No comments:

Post a Comment