Thursday, December 25, 2014

मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा

मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा
वो मुझसे जीत भी सकता था जाने क्यों हारा

(ख़लिश = चुभन, वेदना)

बरस के खुल गए आँसू निथर गई है फ़िज़ा
चमक रहा है सर-ए-शाम दर्द का तारा

किसी की आँख से टपका था इक अमानत है
मेरी हथेली पे रखा हुआ ये अँगारा

जो पर समेटे तो इक शाख़ भी नहीं पाई
खुले थे पर तो मिरा आसमान था सारा

वो साँप छोड़ दे डसना ये मैं भी कहता हूँ
मगर न छोड़ेंगे लोग उसको गर न फुंकारा

-जावेद अख़्तर

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