Thursday, September 27, 2012

यूँ ही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो,
वो ग़ज़ल की सची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो

-बशीर बद्र

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