Friday, October 12, 2012

पढ़ लिख गए तो हम भी कमाने निकल गए
घर लौटने में फिर तो ज़माने निकल गए

सूखे गुलाब, सरसों के मुरझा गए हैं फूल
उनसे मिलने के सारे बहाने निकल गए

किन साहिलों पे नींद की परियाँ उतर गईं
किन जंगलों में ख़्वाब सुहाने निकल गए

'शाहिद' हमारी आँखों का आया उसे ख़याल
जब सारे मोतियों के खज़ाने निकल गए
-डॉ शाहिद मीर

2 comments:

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  2. पढ़ लिख गए तो हम भी कमाने निकल गए
    घर लौटने में फिर तो ज़माने निकल गए।

    गिर आयी शाम हम भी चले अपने घर की और।
    पंछी भी अपने अपने ठिकाने निकल गए।

    पहले तो बुझाते रहे हम अपने घर की आग,
    फिर बस्तियों में आग लगाने निकल गए।

    किन साहिलो पे नींद की परिया उतर गयी?
    किन जंगलों में ख्वाब सुहाने निकल गए?

    खुद मछलिया पुकार रही है कह है जाल?
    तीरो की आरज़ू में निशाने निकल गए।

    सुख गए गुलाब, मुरझा गए है फूल,
    उनसे मिलने के सारे बहाने निकल गए।।

    शाहिद मिरी आँखों का आया उन्हें ख्याल।।
    जब मोतियों के सारे ख़ज़ाने निकल गए।।।

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