Saturday, February 23, 2013

तुम्हें ख़ूबसूरत नज़र आ रही हैं,
ये राहें तबाही के घर जा रही हैं।

अभी तुमको शायद पता भी नहीं है,
तुम्हारी अदाएँ सितम ढा रही हैं।

कहीं जल न जाए नशेमन हमारा,
हवाएँ भी शोलों को भड़का रही हैं।

हम अपने ही घर में पराये हुए हैं,
सियासी निगाहें ये समझा रही हैं।

गल़त फ़ैसले नाश करते रहे हैं,
लहू भीगी सदियाँ ये बतला रही हैं।

'तुषार' उनकी सोचों को सोचा तो जाना,
दिलों में वो नफरत को फैला रही हैं।

-नित्यानंद 'तुषार'
 

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