Thursday, June 13, 2013

न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में ख़ुदा होता
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता

न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेरे-पा होता

(आलम ज़ेरे-पा = दुनिया/ संसार पैरों के नीचे)

घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तज़किरा होता
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मे-दिल हरा होता

(तज़किरा = चर्चा, ज़िक्र)

बुलाकर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से उठवाया
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर दिया होता

तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लौट गए
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी थी, कुछ कहा होता

-नौशाद लखनवी

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