Tuesday, September 25, 2012

आस्था का जिस्म घायल रूह तक बेज़ार है
क्या करे कोई दुआ जब देवता बीमार है

तीरगी अब भी मज़े में है यहाँ पर दोस्तो
इस शहर में जुगनुओं को रोशनी दरकार है

भूख से बेहाल बच्चों को सुनाकर चुटकुले
जो हँसा दे, आज का सबसे बड़ा फ़नकार है

मैं मिटा के ही रहूँगा मुफ़लिसी के दौर को
बात झूठी रहनुमा की है, मगर दमदार है

वो रिसाला या कोई नॉवल नहीं है दोस्तो
पढ़ रहा हूँ मैं जिसे, वो दर्द का अख़बार है

ख़ूबसूरत जिस्म हो या सौ टका ईमान हो
बेचने की ठान लो तो हर तरफ़ बाज़ार है

रास्ते ही रास्ते हों जब शहर की कोख में
मंज़िलों को याद रखना और भी दुश्वार है
-डॉ कुमार विनोद

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