Tuesday, October 2, 2012

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे,
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे ।

वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द,
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे ।

ये लोग तज़करे करते हैं अपने लोगों से,
मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे ।

(तज़किरा = चर्चा, ज़िक्र)

मगर वो ज़ूदफ़रामोश ज़ूदरंज भी है,
के रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे ।

[(ज़ूद = शीघ्र, जल्दी), (ज़ूदफ़रामोश = जल्दी भूलने वाला),  (ज़ूदरंज = जल्दी बुरा मानने वाला, तुनक मिजाज़)]

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ,
तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे।

जो हमसफ़र सरे मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़',
अजब नहीं कि अगर याद भी न आऊं उसे ।
-अहमद फ़राज़

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