Sunday, October 21, 2012

इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और
या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और

आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे
हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और

मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और

घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में
आ-जा रहे थे लोग ज़ेह्न में तमाम और

हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और

हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग
शीशा चटख़ गया तो हुआ एक काम और

उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और

-दुष्यंत कुमार

No comments:

Post a Comment