Saturday, December 29, 2012

कोई निर्दोष गर्दन कट रही है,
नया सूरज लिये पौ फट रही है।

यहाँ प्यासों की चीखें गूँजती हैं,
ये धरती क्या कभी पनघट रही है?

हुआ है स्याह मेहनत का मुकद्दर,
सफेदी ताज की क्यों घट रही है।

सरे बाज़ार बिकने को  खड़ी है,
वो चूनर जो कभी घूँघट रही है।

हम उसमें  ज़िंदगी फूँकेंगे 'माणिक',
जो बस्ती कल तलक मरघट रही है।
-माणिक वर्मा

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