कल समय के सच को जो सूली पे लटकाने उठे,
आज अर्थी पर उसी की फूल बरसाने उठे।
आज अर्थी पर उसी की फूल बरसाने उठे।
जब हर इक सावन की बदली आग बरसाने लगे,
कोई पौधा सर उठाकर कैसे लहराने उठे।
कोई पौधा सर उठाकर कैसे लहराने उठे।
आपने तो घोलकर दी थी हमें संजीवनी,
क्यों हमारे जिस्म पर रिसते हुए दाने उठे।
क्यों हमारे जिस्म पर रिसते हुए दाने उठे।
बर्फ की चट्टान निकली आरज़ू की हर किरण,
खुद हुए वो सर्द जो औरों को गरमाने उठे।
खुद हुए वो सर्द जो औरों को गरमाने उठे।
खोखले जिस्मों से तुमने आत्मा तक छीन ली,
और किस तोहफ़े से हमको आप बहलाने उठे।
और किस तोहफ़े से हमको आप बहलाने उठे।
इससे बिलकुल ही अलग है ज़िन्दगी का फ़ल्सफ़ा,
आप किस पोथी को लेकर हमको बहकाने उठे।
आप किस पोथी को लेकर हमको बहकाने उठे।
हो सके न जो कभी इतिहास के पन्नों में दर्ज,
जाने कितने लोग इस महफ़िल से अनजाने उठे।
जाने कितने लोग इस महफ़िल से अनजाने उठे।
वो ज़माना और था जब कैसे - कैसे लोग थे,
देवता भी जिनके चरणों की क़सम खाने उठे।
देवता भी जिनके चरणों की क़सम खाने उठे।
इक नये इंसान की तस्वीर मैंने जब रखी,
उँगलियाँ उस पर उठीं, मुझ पर कई ताने उठे।
उँगलियाँ उस पर उठीं, मुझ पर कई ताने उठे।
अपनी खुशबू से जो करदे क़त्ल ज़हरीली हवा,
कोई ऐसा तो सुमन धरती की महकाने उठे।
-माणिक वर्मा
कोई ऐसा तो सुमन धरती की महकाने उठे।
-माणिक वर्मा
No comments:
Post a Comment