Saturday, July 13, 2013

अर्ज़ ओ समाँ कहाँ तेरी वुसअत को पा सके
मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समाँ सके

(वुसअत = विस्तार)

वहदत में तेरी हर्फ़ दुई का न आ सके
आईना क्या मजाल तिझे मुंह दिखा सके

(वहदत = एकत्व, अद्वैत भाव), (हर्फ़ = अक्षर, शब्द)

मैं वो फ़तादा हूँ कि बग़ैर अज़ फ़ना मुझे
नक़्श ए क़दम की तरहा न कोई उठा सके

क़ासिद नहीं ये काम तेरा अपनी राह ले
उस का पयाम दिल के सिवा कौन ला सके

(क़ासिद = पत्रवाहक, डाकिया), (पयाम = सन्देश)

ग़ाफ़िल ख़ुदा की याद पे मत भूल ज़ीन्हार
अपने तईं भुला से अगर तू भुला सके

(ग़ाफ़िल = बेख़बर), (ज़ीन्हार = कदापि)

यारब ये क्या तिलिस्म है इद्राक ओ फ़ेहम याँ
दौड़े हज़ार, आप से बाहर न जा सके

(इद्राक ओ फ़ेहम = बुद्धि, समझ, ज्ञान)

गो बहस करके बात बिठाई प क्या हुसूल
दिल सा उठा ग़िलाफ़ अगर तू उठा सके

(हुसूल = लाभ, निष्कर्ष, नतीजा), (ग़िलाफ़ = खोल)

इतफ़ा-ए-नार-ए-इश्क़ न हो आब-ए-अश्क से
ये आग वो नहीं जिसे पानी बुझा सके

(इतफ़ा-ए-नार-ए-इश्क़ = इश्क़ की आग बुझाना), (आब-ए-अश्क = आँसुओं का पानी)

मस्त-ए-शराब-ए-इश्क़ वो बेखुद है जिसको हश्र
ऐ दर्द चाहे लाये बखुद पर न ला सके

-ख़्वाजा मीर दर्द

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