इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत
रात हो, दिन हो, ग़फ़लत हो, कि बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत
(ग़फ़लत = बेपरवाही, बेख़बरी), (बेदारी = जागने की अवस्था, जाग्रति)
तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत
(तश्नगी = प्यास), (मुक़ामात = ठहरने की जगहें/ पड़ाव, बहुत से स्थान), (क़तरा = कण, बूँद)
मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत
(इज़ाफ़ा = वृद्धि, बढ़ोत्तरी)
कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पे ऐ 'नूर' उजाला है बहुत
-कृष्ण बिहारी 'नूर'
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत
रात हो, दिन हो, ग़फ़लत हो, कि बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत
(ग़फ़लत = बेपरवाही, बेख़बरी), (बेदारी = जागने की अवस्था, जाग्रति)
तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत
(तश्नगी = प्यास), (मुक़ामात = ठहरने की जगहें/ पड़ाव, बहुत से स्थान), (क़तरा = कण, बूँद)
मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत
(इज़ाफ़ा = वृद्धि, बढ़ोत्तरी)
कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पे ऐ 'नूर' उजाला है बहुत
-कृष्ण बिहारी 'नूर'
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