Thursday, February 26, 2015

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में

अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में
मुझ को मुझ से जुदा कर के जो छुपा है मुझ में

जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जायें
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में

आईना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन
आईना इस पे है ख़ामोश के क्या है मुझ में

अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ 'नूर'
मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में

-कृष्ण बिहारी 'नूर'

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