मेरा माथा नत कर दो तुम
अपनी चरण-धूलि-तल में;
मेरा सारा अहंकार दो
डुबो चक्षुओं के जल में।
गौरव-मंडित होने में नित
मैंने निज अपमान किया है;
घिरा रहा अपने में केवल
मैं तो अविरल पलपल में।
मेरा सारा अहंकार दो
डुबो चक्षुओं के जल में।।
अपनी चरण-धूलि-तल में;
मेरा सारा अहंकार दो
डुबो चक्षुओं के जल में।
गौरव-मंडित होने में नित
मैंने निज अपमान किया है;
घिरा रहा अपने में केवल
मैं तो अविरल पलपल में।
मेरा सारा अहंकार दो
डुबो चक्षुओं के जल में।।
अपना करूँ प्रचार नहीं मैं
खुद अपने ही कर्मों से;
करो पूर्ण तुम अपनी इच्छा
मेरी जीवन-चर्या से।
चाहूँ तुमसे चरम शांति मैं
परम कांति निज प्राणों में;
रखे आड़ में मुझको
आओ ह्रदय-पदम्-दल में।
मेरा सारा अहंकार दो
डुबो चक्षुओं के जल में।।
-रवीन्द्रनाथ टैगोर
खुद अपने ही कर्मों से;
करो पूर्ण तुम अपनी इच्छा
मेरी जीवन-चर्या से।
चाहूँ तुमसे चरम शांति मैं
परम कांति निज प्राणों में;
रखे आड़ में मुझको
आओ ह्रदय-पदम्-दल में।
मेरा सारा अहंकार दो
डुबो चक्षुओं के जल में।।
-रवीन्द्रनाथ टैगोर
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